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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


लोगों का यह कहना था कि उसका चाचा, जिसके साथ वह रहती थी, रिश्ते में उसका कोई नहीं है, वह असल में फतेहपुर के पास के किसी गाँव का नाई है जो सफरमैना पल्टन में भरती हो कर क्वेटा बलूचिस्तान की ओर गया था और वहाँ किसी गाँव के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद यह तीन-चार बरस की लड़की उसे रोती हुई मिली थी जिसे वह उठा लाया और पालने-पोसने लगा था।

बहुत दिनों तक वह लड़की उधर ही रही, और अंत में उसका एक हाथ कट जाने के बाद उसे पेंशन मिल गई और वह आ कर यहीं रहने लगा। एक हाथ कट जाने से वह अपना पुश्तैनी पेशा तो नहीं कर सकता था, लेकिन उसने यहाँ आ कर साबुनसाजी शुरू कर दी थी और चमन ठाकुर का पहिया छाप साबुन न सिर्फ मुहल्ले में, वरन चौक तक की दुकानों पर बेचा जाता था। चूँकि उसका एक हाथ कटा हुआ था, अत: सोलह-सत्रह साल की अनिंद्य सुंदरी सत्ती साबुन जमाती थी, उसके टुकड़े उसी काले बेंट के चाकू से काटती थी, उन्हें दुकानदारों के यहाँ पहुँचाती थी और हर पखवारे के अंत में जा कर उसका दाम वसूल कर लाती थी। हर दुकानदार उसके सिर पर बँधे रंग-बिरंगे रूमाल, उसके बलूची कुरते, उसके चौड़े गरारे की ओर एक दबी निगाह डालता और दूसरे साबुनों के बजाय पहिया छाप साबुन दुकान पर रखता, ग्राहकों से उसकी सिफारिश करता और उसकी यह तमन्ना रहती कि कैसे सत्ती को पखवारे के अंत में ज्यादा-से-ज्यादा कलदार दे सके।

चमन ठाकुर कारखाने के बाहर खाट डाल कर नारियल का हुक्का पीते रहते थे और सत्ती अंदर काम करती थी। श्रम ने सत्ती के बदन में एक ऐसा गठन, चेहरे पर एक ऐसा तेज, बातों में एक ऐसा अदम्य आत्मविश्वास पैदा कर दिया था कि जब उसे माणिक मुल्ला ने देखा तो उनके मन में लिली का अभाव बहुत हद तक भर गया और सत्ती के व्यक्तित्व से मंत्र-मुग्ध हो गए।

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