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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।

पाँचवीं दोपहर


काले बेंट का चाकू


अगले दिन दोपहर को जब हम सब लोग मिले तो एक अजब-सी मन:स्थिति थी हम लोगों की। हम सब इस रंगीन रूमानी प्रेम के प्रति अपना मोह तोड़ नहीं पाते थे, और दूसरी ओर उस पर हँसी भी आती थी, तीसरी ओर एक अजब-सी ग्लानि थी अपने मन में कि हम सब, और हम सबके ये किशोरावस्था के सपने कितने निस्सार होते हैं और इन सभी भावनाओं का संघर्ष हमें एक अजीब-सी झेंप और झुँझलाहट - बल्कि उसे खिसियाहट कहना बेहतर होगा - की स्थिति में छोड़ गया था। लेकिन माणिक मुल्ला बिलकुल निर्द्वंद्व भाव से प्रसन्नचित्त हम लोगों से हँस-हँस कर बातें करते जा रहे थे और आलमारी तथा मेज पर से धूल झाड़ते जा रहे थे जो रात को आँधी के कारण जम जाती है, और ऐसा लगता था कि जैसे आदमी पुराने फटे हुए मोजों को कूड़े पर फेंक देता है उसी तरह अपने उस सारे रूमानी भ्रम को, सारी ममता छोड़ कर फेंक दिया है और उधर मुड़ कर देखने का भी मोह नहीं रखा।

सहसा मैंने पूछा, 'इस घटना ने तो आपके मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला होगा?'

मेरे इस प्रश्न से उनके चेहरे पर दो-चार बहुत करुण रेखाएँ उभर आईं लेकिन उन्होंने बड़ी चतुरता से अपनी मन:स्थिति छिपाते हुए कहा, 'मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी, कोई घटना ऐसी नहीं जो आदमी के अंतर्मन पर गहरी छाप न छोड़ जाए।'

'कम-से-कम अगर मेरे जीवन में ऐसा हो, तो मेरी तो सारी जिंदगी बिलकुल मरुस्थल हो जाए। शायद दुनिया की कोई चीज मेरे मन में कभी रस का संचार न कर सके।' मैंने कहा।

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