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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


उनका तन हड्डी का ढाँचा-भर रह गया था। चलते हुए आप नजदीक से पसलियों की खड़बड़ाहट तक सुन सकते थे। किसी तरह हिम्मत बाँध कर गए। अफसर लोग चिढ़े हुए थे। मेल ट्रेन पर रात की ड्यूटी लगा दी और वह भी ऐन होली के दिन। रंग में भीगते हुए भी थर-थर काँपते हुए स्टेशन गए। सारा बदन जल रहा था। काम तो साथियों ने मिल कर कर दिया, वे चुपचाप पड़े रहे। डिब्बे में अंदर सीलन थी। बदन टूट रहा था, नसें ढीली पड़ गई थीं। सुबह हुई। टूंडला आया। थोड़ी-थोड़ी धूप निकल आई थी। वे जा कर दरवाजे के पास खड़े हो गए। गाड़ी चल दी। पाँव थर-थर काँप रहे थे, सहसा इंजन के पानी की टंकी की झूलती हुई बाल्टी इनकी कनपटी में लगी और फिर इन्हें होश नहीं रहा।

आँख खुली तो टूंडला के रेलवे अस्पताल में थे। दोनों पाँव नहीं थे। आस-पास कोई नहीं था, बेहद दर्द था। खून इतना निकल चुका था कि आँख से कुछ ठीक दिखाई नहीं पड़ता था। सोचा, किसी को बुलावें तो मुँह से जमुना का नाम निकला, फिर अपने बच्चे का, फिर बापू (महेसर) का और फिर चुप हो गए।

लोगों ने बहुत पूछा, 'किसे तार दे दें, क्या किया जाए?' पर वे कुछ नहीं बोले। सिर्फ मरने के पहले उन्होंने अपनी दोनों कटी टाँगें देखने की इच्छा प्रकट की और वे लाई गईं तो ठीक से देख नहीं सकते थे, अत: बार-बार उन्हें छूते थे, दबाते थे, उठाने की कोशिश करते थे, और हाथ खींच लेते थे और थर-थर काँपने लगते थे।

पता नहीं मुझे कैसा लगा कि मैं निष्कर्ष सुनने की प्रतीक्षा किए बिना चुपचाप उठ कर चला आया।

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