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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


डाक ले जाते हुए एक बार रेल में नीमसार जाती हुई तीर्थयात्रिणी जमुना मिली। साथ में रामधन था। जमुना बड़ी ममता से पास आ कर बैठ गई, उसके बच्चे ने मामा को प्रणाम किया। जमुना ने दोनों को खाना दिया। कौर तोड़ते हुए तन्ना की आँख में आँसू आ गए। जमुना ने कहा भी कि कोठी है, ताँगा है, खुली आबोहवा है, आ कर कुछ दिन रहो, तंदुरुस्ती सँभल जाएगी, पर बेचारे तन्ना! नैतिकता और ईमानदारी बड़ी चीज होती है।

लेकिन उस सफर से जो तन्ना लौटे तो फिर पड़ ही गए। महीनों बुखार आया। रोग के बारे में डॉक्टरों की मुख्तलिफ राय थी। कोई हड्डी का बुखार बताता था, तो कोई खून की कमी, तो कोई टी.बी. भी बता रहा था। घर का यह हाल कि एक पैसा पास नहीं, पत्नी का सारा जेवर ले कर सास अपने घर चली गई, छोटी बहन रोया करे, मँझली घिसल-घिसल कर कहे, 'अभी क्या, अभी तो कीड़े पड़ेंगे!' सिर्फ यूनियन के कुछ लोग आ कर अच्छी-भली सलाहें दे जाते थे - साफ हवा में रखो, फलों का रस दो, बिस्तर रोज बदल देना चाहिए और बेचारे करते ही क्या!

होते-होते जब नौबत यहाँ तक पहुँची कि उन्हें दफ्तर से खारिज कर दिया गया, घर में फाके होने लगे तो उनकी सास आ कर अपनी लड़की को लिवा ले गई और बोली, जब कमर में बूता नहीं था तो भाँवरें क्यों फिरायी थीं और फिर यूनियन-फूनियन के गुंडे आवारे आ कर घर में हुड़दंगा मचाते रहते हैं। तन्ना की बहनें उनके सामने चाहे निकलें चाहे नाचें-गाएँ, उनकी लड़की यह पेशा नहीं कर सकती।

इधर यूनियन उनकी नौकरी के लिए लड़ रही थी और जब वे बहाल हो गए तो लोगों ने सलाह दी, दो हफ्ते के लिए चले जाएँ, बाकी लोग उनका काम करा दिया करेंगे और उसके बाद फिर छुट्टी ले लेंगे।

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