ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
तीसरी दोपहर
शीर्षक माणिक मुल्ला ने नहीं बताया
हम लोग सुबह सो कर उठे तो देखा कि रात ही रात सहसा हवा बिलकुल रुक गई है और इतनी उमस है कि सुबह पाँच बजे भी हम लोग पसीने से तर थे। हम लोग उठ कर खूब नहाए मगर उमस इतनी भयानक थी कि कोई भी साधन काम न आया। पता नहीं ऐसी उमस इस शहर के बाहर भी कहीं होती है या नहीं; पर यहाँ तो जिस दिन ऐसी उमस होती है उस दिन सभी काम रुक जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में क्लर्क काम नहीं कर पाते, सुपरिंटेंडेंट बड़े बाबुओं को डाँटते हैं, बड़े बाबू छोटे बाबुओं पर खीज उतारते हैं, छोटे बाबू चपरासियों से बदला निकालते हैं और चपरासी गालियाँ देते हुए पानी पिलानेवालों से, भिश्तियों से और मालियों से उलझ जाते हैं; दुकानदार माल न बेच कर ग्राहकों को खिसका देते हैं और रिक्शावाले इतना किराया माँगते हैं कि सवारियाँ परेशान हो कर रिक्शा न करें। और इन तमाम सामाजिक उथल-पुथल के पीछे कोई ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक प्रगति का सिद्धांत न हो कर केवल तापमान रहता है - टेंपरेचर, उमस, एक-सौ बारह डिगरी फारिनहाइट!
लेकिन इस उमस के बावजूद माणिक मुल्ला की कहानियाँ सुनने का लोभ हम लोगों से छूट नहीं पाता था अत: हम सबके-सब नियत समय पर वहीं इकट्ठा हुए और मिलने पर सबमें यही अभिवादन हुआ - 'आज बहुत उमस है!'
'हाँ जी, बहुत उमस है; ओफ-फोह!'
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