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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


प्रकाश : क्या? क्या व्याख्या दे सकते हो?

मैं : (अकड़ कर) मार्क्सवादी!

ओंकार : अरे यार रहने भी दो!

श्याम : मुझे नींद आ रही है।

मैं : देखिए, असल में इसकी मार्क्सवादी व्याख्या इस तरह हो सकती है। जमुना मानवता का प्रतीक है, मध्यवर्ग (माणिक मुल्ला) तथा सामंतवर्ग (जमींदार) उसका उद्धार करने में असफल रहे; अंत में श्रमिकवर्ग (रामधन) ने उसको नई दिशा सुझाई!

प्रकाश : क्या? (क्षण-भर स्तब्ध। फिर माथा ठोंक कर) बेचारा मार्क्सवाद भी ऐसा अभागा निकला कि तमाम दुनिया में जीत के झंडे गाड़ आया और हिंदुस्तान में आ कर इसे बड़े-बड़े राहु ग्रस गए। तुम ही क्या, उसे ऐसे-ऐसे व्याख्याकार यहाँ मिले हैं कि वह भी अपनी किस्मत को रोता होगा। (जोरों से हँसता है, मैं अपनी हँसी उड़ते देख कर उदास हो जाता हूँ।)

हकीम जी की पत्नी : (नेपथ्य से) मैं कहती हूँ यह चबूतरा है या सब्जी मंडी। जिसे देखो खाट उठाए चला आ रहा है। आधी रात तक चख-चख चख-चख! कल से सबको निकालो यहाँ से।

हकीमजी : (नेपथ्य से काँपती हुई बूढ़ी आवाज) अरे बच्चे हैं। हँस-बोल लेने दे। तेरे अपने बच्चे नहीं हैं फिर दूसरों को क्यों खाने दौड़ती है... (हम सब पर सकता छा जाता है। मैं बहुत उदास हो कर लेट जाता हूँ। नीम पर से नींद की परियाँ उतरती हैं, पलकों पर छम-छम छम-छम नृत्य कर)।

(यवनिका-पतन)

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