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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


लेकिन जमुना को जल्दी ही ससुराल लौट जाना पड़ा, क्योंकि एक दिन उसके बाप बहुत परेशान हालत में रात को आठ बजे बैंक से लौटे और बताया कि हिसाब में एक सौ सत्ताईस रुपया तेरह आने की कमी पड़ गई है, अगर कल सुबह जाते ही उन्होंने जमा न कर दिया तो हिरासत में ले लिए जाएँगे। यह सुनते ही घर में सियापा छा गया और जमुना ने झट ट्रंक से नोट की गड्डी निकाल कर छप्पर में खोंस दी और जब माँ ने कहा, 'बेटी उधार दे दो!' तो ताली माँ के हाथ में दे कर बोली, 'देख लो न, संदूक में दो-चार दुअन्नियाँ पड़ी होंगी।' लेकिन जमुना ने सोचा आज बला टल गई तो टल गई, आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी। इतना तो पहले लुट गया है, अब अगर जमुना भी माँ-बाप पर लुटा दे तो अपने बाल-बच्चों के लिए क्या बचाएगी? अरे माँ-बाप कै दिन के हैं? उसे सहारा तो उसके बच्चे ही देंगे न!

यहाँ पर माणिक मुल्ला कहानी कहते-कहते रुक गए और हम लोगों की ओर देख कर बोले, 'प्यारे मित्रो! हमेशा याद रखो कि नारी पहले माँ होती है तब और कुछ! इसका जन्म ही इसलिए होता है कि वह माँ बने। सृष्टि का क्रम आगे बढ़ावे। यही उसकी महानता है। तुमने देखा कि जमुना के मन में पहले अपने बच्चों का खयाल आया।'

अस्तु। जमुना अपने भावी बाल-बच्चों का खयाल करके अपनी ससुराल चली गई और सुख से रहने लगी। सच पूछो तो यहीं जमुना की कहानी का खात्मा होता है।

'लेकिन आपने तो घोड़े की नाल दिखाई थी। इसका तो जिक्र आया ही नहीं?'

'ओह! मैंने सोचा देखूँ तुम लोग कितने ध्यान से सुन रहे हो।' और तब उन्होंने उस नाल की घटना भी बताई।

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