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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


'थाली काहे खिसका दी? न खाओ मेरी बला से। क्यों नहीं ढूँढ़ के लाते? जब लड़की की उमर मेरे बराबर हो रही है तो लड़का कहाँ से ग्यारह साल का मिल जाएगा।' इस बात को ले कर पति और पत्नी में बहुत कहा-सुनी हुई। अंत में जब पत्नी पान बना कर ले गई और पति को समझा कर कहा, 'लड़का तिहाजू है तो क्या हुआ। मरद और दीवार - जितना पानी खाते हैं उतना पुख्ता होते हैं।'

जब जमुना के द्वारे बारात चढ़ी तो माणिक मुल्ला ने देखा और उन्होंने उस पुख्ता दीवार का जो वर्णन दिया उससे हम लोग लोट-पोट हो गए। जमुना ने उसे देखा तो बहुत रोई, जेवर चढ़ा तो बहुत खुश हुई, चलने लगी तो यह आलम था कि आँखों से आँसू नहीं थमते थे और हृदय में उमंगें नहीं थमती थीं। जब जमुना लौट कर मैके आई तो सभी सखियों के यहाँ गई। अंग-अंग पर जेवर लदा था, रोम-रोम पुलकित था और पति की तारीफ करते जबान नहीं थकती थी। 'अरी कम्मो, वो तो इतने सीधे हैं कि जरा-सी तीन-पाँच नहीं जानते। ऐ, जैसे छोटे-से बच्चे हों। पहली दोनों के मैकेवाले सारी जायदाद लूट ले गए, नहीं तो धन फटा पड़ता था। मैंने कहा अब तुम्हारे साले-साली आवेंगे तो बाहर ही से विदा करूँगी, तुम देखते रहना। तो बोले, 'तुम घर की मालकिन हो। सुबह-शाम दाल-रोटी दे दो बस, मुझे क्या करना है।' चौबीसों घंटा मुँह देखते रहते हैं। जरा-सी कहीं गई - बस सुनती हो, ओ जी सुनती हो, अजी कहाँ गई! मेरी तो नाक में दम है कम्मो! मुहल्ला-पड़ोसवाले देख-देख कर जलते हैं। मैंने कहा, जितना जलोगे उतना जलाऊँगी। मैं भी तब दरवाजा खोलती हूँ जब धूप सिर पर चढ़ आती है। और खयाल इतना रखते हैं कि मैं आई तो ढाई सौ रुपए जबरदस्ती ट्रंक में रख दिए। कहा, हमारी कसम है जो इसे न ले जाओ।'

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