ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
‘यही कि तुम अब प्रसन्न रहो, तुम्हारे से ऐसी कोई बात न हो जिससे रमेश के पिता को शंका हो जाए और वे इस सम्बन्ध को अस्वीकृत कर दें....।'
'पर मां, मैं विवाह नहीं करूंगी...’
'रेखा.... यह क्या कह रही है? होश-हवास में तो है?’ मां ने साश्चर्य पूछा।
'खूब होश में हूं मां, मेरा निर्णय तुम बाबा तक पहुंचा दो।'
‘यह मुझसे न होगा!'
'तो मैं स्वयं जाकर कहती हूं।' रेखा निश्चय और दृढ़ता के साथ उठी। बाबा के कमरे में गई तो देखा, बाबा अलमारी खोल कागजों और किताबों को उलट-पलट रहे हैं। वह तनकर खड़ी हो गई। जबान हिलाई, पर शब्द बाहर नहीं निकले - भीतर ही घुटकर रह गई। वह हार मान वापस घूम पडी। बिस्तर पर आकर औंधे मुंह गिर पड़ी। सिसकियों का तांता बध गया। मां ने देखा तो वह दुःखी होने के बदले प्रसन्न ही हुई। इसलिए कि बाबा के सामने उसकी हिम्मत, उस का प्रेम दगा दे गया।
वह प्यार भरे हाथ फेरकर सांत्वना देने का असफल प्रयास करती रही। जब रो-धोकर जी हल्का हुआ तो वह मां को सोने के लिए कह स्वयं सोने का उपक्रम करने लगी।
इसी रात आकाश पर घोर घटा छाई हुई थी। रह-रहकर वर्षा धरती की प्यास बुझा रही थी। बिजली अपनी प्रचंडता का परिचय दे रही थी। ऐसे ही समय में मोहन, राणा साहब के बाहरी दरवाजे तक पहुंचा। ताला खोला और किवाड़ों को धीरे से खोल दिया। सामने ही रेखा लेटी हुई थी।
विचारों में खोई रेखा को अभी तक मोहन के आने का भान नहीं हुआ था। उसने जब’शी' की आवाज की तो वह हड़वड़ाकर उठ बैठी। आंखें फाड़कर देखा तो पलंग से उतर पास आ गई। बोली-’इतनी रात गए, इस तूफान और बरसते पानी में आना उचित हुआ?'
'वर्षा या तूफान की चिंता सच्चे प्रेमी नहीं करते। मुझे आना था, आ गया।’
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