ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'हम लोगों का मिलन अव यहीं तक सीमित रहेगा क्या? ’ उसने रेखा के मन की गहराई में बैठकर थाह लेने की गरज से पूछा।
'ऐसा न कहो मोहन! तुमसे अधिक मैं अधीर हूं। अभी यहां अच्छी तरह से व्यवस्थित हो जाने दो। फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाने पर मिलने का प्रबन्ध हो जाएगा। किसी कार्य में शीघ्रता कभी-कभी खतरनाक होती है।'
निश्चयानुसार दोनों का पत्र-व्यवहार होता रहा.. दिन बीतते रहे। कोई नवीन घटना नहीं हुई।
एक दिन वह बावा का कमरा साफ करते हुए, मोहन की तरह सीटी से कोई फिल्मी तर्ज गुनगुना रही थी। अपनी धुन में मस्त थी। अचानक किसी का पद्चाप सुन वह सिटपिटा गई। उसका गुनगुनाना क्षणमात्र में वन्द हो गया। उलटकर देखा।
रमेश मुस्कराता हुआ खड़ा था।
प्रत्युत्तर में रेखा भी मुस्करा पड़ी। अभिवादन करते हुए बोली-’ओह, आप, आइए-आइए, द्वार रोके क्यों खड़े हैं।'
‘इसलिए कि पंछी कहीं उड़ न जाए।'
'उड़ना होता तो आपके कलकत्ता न आ जाती।'
'मेरा कलकत्ता! मेरा कलकत्ता कैसे?'
'आप ही तो कहा करते थे कि मेरे यहां कलकत्ता नहीं आइएगा?'
'ओह ! समझा, पर आना तो अचानक ही हुआ है, सूचना देकर आने में कुछ और ही बात होती।'
'आना था, सो आ गए। आपका तकाजा भी तो था। बावा कैसे टालते? आपका बहुत ख्याल जो रखते हैं।'
'पर तुम्हें तो ख्याल नहीं।' रमेश ने व्यंग्य किया।. रेखा तिलमिलाकर रह गई। वास्तविकता पर पर्दा डालने या रमेश को भूल-भुलैया में भटकने के लिए छोड़ देना उसके वश की वात न थी। उसने उस भूल की धारा को बदल देने के विचार से कहा-’अरे, आप अभी तक खड़े हैं। मैं तो बातों ही बातों में शिष्टाचार की बात भी भूल गई। बैठिए, अभी चाय लेकर आती हूं...'
'कष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं, अभी पीकर चला आ रहा हूं। आने की सूचना मिली और पांव-पैदल हाजिर हो गया।'
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