ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
दूसरे दिन शाम को राणा साहब के यहां रमेश की विदाई की तैयारी हो रही थी।
सभी कुछ-न-कुछ काम में जुटे थे। राणा साहव और रमेश बाहर वाले बरामदे में अपनी न समाप्त होने वाली बातें किए जा रहे थे। रेखा पास ही खड़ी उनकी बात सुन रही थी, रह- रहकर उसकी दृष्टि शम्भू पर चली जाती थ्री जो मोटर में रमेश का सामान रख रहा था।
उसी समय फाटक से एक जीप भीतर आई और मोटर के पीछे आ रुकी। उसमें से तिवारी को उतरते देख राणा साहब आगे बढ़ आए- 'हैलो तिवारी.... आज इतने दिनों पश्चात.. ’
'पुलिसवालों का भाग्य ही कुछ ऐसा है कि उन्हें अवकाश कम मिलता है।’
'उस हार का क्या हुआ?' राणा साहब ने पूछा।
'चोर पकड़ा गया जीवित नहीं, मृत।'
'वह कैसे?' जरा और पास आकर उन्होंने पूछा। रेखा भी यह सुन आश्चर्यचकित हो समीप आ गई।
'शायद बदनामी के भय से आत्महत्या करली उसने।'
'और हार...'
'असली मालिक को मिल गया... खाक डालिए इस बात पर... यह बताइए, यह सब धूम-धड़ाका किसलिए?'
'रमेश वापस जा रहा है न। उसे छोड़ने स्टेशन तक जा रहा हूं।'
'तो आप जा सकते हैं...'
'और आप ! आप यहीं रह जाए, बच्चियां घर पर हैं। मैं तब तक लौट आता हूं।'
'धन्यवाद! आप तो जानते हैं कि हमें दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती। फिर किसी दिन आ जाऊंगा।'
सबको नमस्ते कहता हुआ तिवारी जीप में जा बैठा।
रमेश ने राणा साहब से छुटकारा पाते ही रेखा के पास आकर कहा- 'अच्छा रेखा... तो मैं जा रहा हूं।’
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