ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
नौ
होटल के कमरे का दरवाजा खोलकर मोहन ने जैसे ही भीतर पांव रखा वह स्वयमेव झेंप-सा गया। कमरे की हर वस्तु मौन थी। कमरा जैसे-का-तैसा सजा हुआ था। सामने खूंटी पर तबस्सुम के वही कपड़े टंगे थे जो उसने थियेटर जाने से पूर्व पहन रखे थे। उसी समय उसके कानों में उस गीत की स्वर-लहरी गूंज उठी, जो वह नाचते समय आज थियेटर में गा रही थी।
कमरे की हर वस्तु में वह तबस्सुम का प्रतिबिम्ब देख रहा था। वह देख रहा था कभी मुस्कराती, कभी उदास, कभी आंसू बहाती और कभी क्रोध से आंखों में चिंगारियां भरे तबस्सुम को।
मोहन की अन्तरात्मा कांप उठी। उसके मुख पर कालिमा छाने लगी। वह अलमारी की ओर वढ़ा। कांपते हाथों से उसको खोलने का प्रयत्न करने लगा।
उसी समय किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। उसके हाथ वहीं जमकर रह गए। दूसरे ही क्षण उसने तेजी से दरवाजे की ओर बढ़कर दरवाजा खोल दिया।
'ओह... वर्मा साहब...'
'मोहन, क्या तुम थियेटर नहीं गए थे? ’
'क्यों? क्या कोई विशेष बात हो गई है? ’
'मोहन. तबस्सुम...'
'मैं सुन चुका हूं... उसने व्यर्थ ही प्राण गंवा दिए... मुझे बहुत दुःख है।'
'उसने आपकी खातिर ही.... ’
'इस विषय में मैं आपसे अधिक जानता हूं।' मिस्टर वर्मा, की बात उसने बीच में ही काट दी।
'परन्तु अब क्या होगा?'
'क्यों? क्या बात है......
'पुलिस शीघ्र ही कमरे की तलाशी लेने आ रही है।'
'ओह। तो घबराएं नहीं...... मैं यहां से जा रहा हूं।
मोहन ने वर्मा को बाहर की चाभी देते हुए उसे बाहर से ताला लगा देने को कहा। वर्मा के जाते ही उसने अलमारी खोलकर थोडी-सी नकदी और गहने निकाले और पिछवाड़े वाली खिड़की से कूदकर अन्धकार में विलीन हो गया।
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