ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
मि० वर्मा के जाते ही तबस्सुम ने पुनः दरवाजा बन्द कर, भीतर से चटखनी लगा दी। मोहन पर्दे के पीछे से वाहर आ गया। तवस्सुम ने देखा, उसके मुख पर क्रोध के स्थान पर नम्रता और उदासी व्याप्त है। तबस्सुम निराश दृष्टि से उसको देख उठी। मोहन उसके पास आ गया और उसके कंधे पर धीरे से दोनों हाथ रखते हुए बोला-’क्या तुमसे कुछ मांग सकता हूं मैं? ’
'कहो, क्या चाहिए'..?'
'जीवन...! तुम चाहो तो मुझे जीवन दे सकती हो। नहीं तो मेरी आशाओं की अट्टालिका ढह जाएगी। रेखा यह सुनकर पागल हो जाएगी। मैं तुम्हें कैसे समझाऊं तबस्सुम, कि मैं कहां तक आगे बढ़ गया हूं।'
'मोहन, कभी मैंने भी ऐसा ही महल बनाया था।'
'पर तुम्हारा महल ज्यों का त्यों खड़ा है, धराशाई नहीं हुआ है, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ वना हूं।'
तवस्सुम ठठाकर हंस पड़ी और बोली- 'तुम मुझसे अपने जीवन की भीख मांगते हो... पर मेरे जीवन में प्रवेश कर यह जानने का प्रयत्न किया है कभी कि मेरा क्या होगा? तुम्हें मेरी चिन्ता नहीं! मैं जहन्नुम में जाऊं, तुम्हें कोई दुःख न होगा। मोहन, तुम जानते हो मैंने तुम्हें हृदय से चाहा है, चाहती रहूंगी कयामत तक, परन्तु तुमसे भी कुछ पाने की चाह थी जो न मिली, न मिल सकेगी। अच्छा, बताओ तुम क्या चाहते हो? यही न कि पुलिस को तुम्हारी सूचना न दूं।'
‘हां तवस्सुम! बस यही चाहता हूं।' उसने अधीर होकर कहा?
तबस्सुम को यह आशा न थी कि मोहन इतनी जल्दी बिना उसके भविष्य का ख्याल किए इस तरह तड़ाक से कह देगा कि बस यही चाहता हूं मैं। वह कुछ और ही अपेक्षा किए हुए थी। उसने हृदय कड़ा कर लिया। निश्चय की दृढ़ता उसकी आखों में तैर उठी। वह स्वयं प्रेम की वेदी पर बलिदान हो जाने के लिए तनकर खडी हो गई। आगा-पीछा विना देखे, उसने अपना हाथ मोहन के हाथ में दे दिया 1 उसकी आखें झुक गईं। उन आंखों. से प्रेम-रस में सने गर्म-गर्म आंसू मोहन कीँ हथेली पर आ गिरे। मोहन ने उन गर्म आसुओं को पोंछते हुए पूछा-’क्या मैं सच समझूं?' उसने स्वीकारात्मक सिर हिला दिया।
'परन्तु मोहन।... तुमसे एक वचन चाहती हूं।' उसने मोहन को पुनः असमंजम में डाल दिया।
‘वह क्या?' आश्चर्य-विह्वल हो उसने पूछा।
'घबराओ नहीं, मामूली-सी बात है। वचन दो कि तुम रेखा को रोशन थियेटर में अपने साथ लाओगे. मैं उसे एक बार इन आंखों से देखना चाहती हूं।'
'परन्तु...।'
'विश्वास रखो, मैं धोखा नहीं दूंगी?
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