ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
‘परन्तु यह न भूलो कि परिवार व समाज में हम-तुम जैसे लोगों का कोई स्थान नहीं।'
'इसीलिए न कि तुम जानती हो कि मैं क्या हूं.. क्या करता हूं.. मेरी सव दुर्बलताओं से परिचित हो तुम.. फिर भी मैं तुम्हें बहला देता हूं।'
'इसमें क्या सन्देह।'
‘और इसी प्रकार पुलिसवालों को भी धोखा दे लेता हूं।'
‘अभी तक यही देखती आई हूं।'
'तो क्या रेखा के सम्बन्धियों और समाज को इसी तरह धोखा नहीं दे सकता? ’
'तो तुम प्रेम को भी एक खिलवाड़ समझते हो? ’
'नहीं, बल्कि उसे सफल बनाने का यही साधन अपना रहा हूं। प्रेम और युद्ध में सब-कुछ उचित है।'
'मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि रेखा के प्रेम की अपेक्षा तुम्हारी आंखें उसके धन पर अधिक हैं।'
'तुमने ठीक ही समझा है, रेखा केन्द्र-बिन्दु है और उसके परिवार की प्रतिष्ठा और धन, उसकी परिधि... दोनों का होना मेरे लिए अनिवार्य है।'
यह कहते हुए वह हंसने लगा और हंसते-हंसते बाहर चला गया। उसकी यह हंसी तबस्सुम के कानों में विष की भांति उतर गई और उसने मन में दबी उस चिंगारी को भड़कने नहीं दिया जो कभी उसने उसके प्यार में सुलगाई थी। कभी-कभी तो यह चिंगारी द्वेष की आग बनकर उड़ने लगती परन्तु अपनी विवशता देखकर तबस्सुम भीतर ही भीतर उसे दबा देती और आंखो के आंसू पोंछकर फिर मुस्कराने लगती।
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