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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'बाबा, मैं कहां हूं?'

'देखिए तो..... इसके हाथ-पांव ठंडे हो रहे हैं..... माथा पसीने से तर हो रहा है।'

राणा साहब ने सन्देहपूर्ण व्याकुल दृष्टि चारों ओर दौड़ाई विष की डिबिया फर्श पर खाली पड़ी थी। वह यह देखकर कांप गए और कम्पित स्वर में बोले,’बेटी, वह तूने... ’

राणा साहब का संकेत समझते ही मां के प्राण छूट गए, चिल्लाई-- ’शीघ्र डाक्टर बुलाइए।’

‘थोड़ा ठहरो... क्यों बेटी क्या सचमुच तुमने...’

'आप सोचते और पूछते ही रहेंगे या डाक्टर बुलाएंगे.. इसके तो हाथ-पांव ठंडे हुए जा रहे हैं।’

'नहीं-नहीं बाबा! मैंने यह पाप नहीं किया.....'

'तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो... अपने बाबा से.. माली!'

‘जी!'

'जाओ दौड़ते हुए डाक्टर को बुला लाओ।'

'आप घबराइए मत.. कोई ऐसी बात नहीं हुई है।'

'प्रश्नोत्तर का समय नहीं... शीघ्र जाओ...’

माली चुपचाप बाहर चला गया। बाबा रेखा के समीप आकर फिर बोले--- 'रेखा सच-सच कह, तू जो चाहेगी वही होगा। जिससे चाहेगी उसी से विवाह होगा - कहां है वह? कौन है वह? तू मुझे केवल एक बार बता दे - मैं ढूंढकर उसे तेरे सामने ला खड़ा करूंगा।'

'सच बाबा... अभी उन्हें बुला देंगे?’

'हां-हां, अभी-अभी... परन्तु वह है कौन? ’

'र.. मे. श!' कहकर उसने मुंह पर आंचल डाल लिया। ‘रेखा! राणा साहब हर्ष और विषाद के बीच वहीं बैठ गए। पुनः एकाएक उठकर बेटी को गले लगा लिया। उन्हें अब विश्वास हो गया कि उनके लहू में मान-मर्यादा की जो ऊष्मा है, बह उसी तरह विद्यमान है। बेटी ने विष का प्रयोग नहीं किया है। पुनः मन शंकालु होने पर, जब उन्होंने उस पर संदेहभरी दृष्टि डाली तो रेखा मुस्कराते हुए बोली,’बाबा मैं इतनी पगली नहीं.... यह तो जिनके लिए आई थी उन्हीं पर प्रयोग कर डाली थी। अब आपको और लाकर देनी होगी।'

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