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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

थोडी देर बाद रेखा ने ध्यान से पुनः उधर देखा। वह वहीं खड़ा था और लिफाफा उसके हाथों में कांप रहा था। ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे उसे चक्कर आ रहा हो। वह लड़खड़ाया हुआ तेजी से एक ओर जाने लगा। धीरे-धीरे वह इस तेजी से भागने लगा मानो बवन्डर किसी तिनके को उड़ाकर लिए जा रहा हो।

रेखा को विश्वास हो गया कि उस पर विष चढ़ गया है। उसने अनुभव किया कि उसके मन की धड़कन भी उसके सीने में ऊधम मचा रही है। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था।

वह भयातुर हो बिस्तर पर लेट गई। बार-बार उसकी दृष्टि उठकर रोशनदान को छूने लगती। अब भी उसे भ्रम हो जाता। मानो कोई सड़क पर सरपट भागा जा रहा हो। रोशन- दान से छनकर आता हुआ उजाला कभी उसके मुख पर पड़ जाता तो वह कांप उठती। अतएव बैड स्विच दबाकर उसने उजाला कर दिया और दोनों हथेलियों के बीच अपना मुंह छिपा लिया।

मन:स्थिति कुछ ठीक होने पर, उसने अपना मुंह हथेलियों से मुक्त किया तो वह दर्पण में झलक उठा।

उसे ऐसा लगा जसे मोहन की धुंधली-सी छाया जीवितावस्था में खड़ी उसे सम्बोधित करके कह रही है- 'निर्मोही नारी.... तूने आज संसार के सामने एक असम्भाव्य उदाहरण प्रस्तुत किया... जिसको तू अबतक प्यार करती रही उसी को विष देकर मार डाला।'

'वह झूठा प्रेम था जो ठोकर खाकर गिर पड़ा। मेरा प्रेम पथिकों के पांव तले रौंदे जाने के लिए नहीं... मेरा प्रेमी झूठा रहा था... उसने प्रेम और विश्वास दोनों पर पदाघात किया था।'

'सच्चा प्रेम तो अमर है। वह ठोकर खाकर उठता है और हर ठोकर मारने वाले को कुचल देता है। आज तुमने मोहन को अपने मार्ग से सदा के लिए हटा दिया.. परन्तु क्या तूने कभी सुना है कि किसी ने अपने प्रेमी को इतना बड़ा दण्ड दिया है, चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न हो?'

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