ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
चौदह
'हैलो रमेश, आओ..!' राणा साहब ने मेज पर रखे कागजों को सम्भालते हुए कहा।
रमेश पास ही कुर्सी पर बैठ गया और बोला-’दफ्तर की ओर से आ रहा था, सोचा मिलता चलूं।'
'कई दिन से दिखाई नहीं दिए... कहो, सब कुशल तो हैं? ’
'सब ठीक है... इधर कुछ अवकाश ही कम मिला।’
'तो आओ, आज शाम को। यहीं इकट्ठी चाय पीएंगे।' ओह, एक बात याद आई। अपने पिताजी से कहना कि तुम्हारी जन्मपत्री भिजवा दें।'
'ऐसी भी क्या शीघ्रता है?'
शुभ कार्यों में देर अच्छी नहीं।'
'मुझे तो कोई इन्कार नहीं... मात्र एक प्रार्थना है।’ संकोच पूर्ण स्वर में नीचे सिर झुकाए ही वह बोला।
'क्या?'
'इस विषय में रेखा की स्वीकृति लेना भी परम आवश्यक है।'
रमेश की यह बात सुनकर राणा साहव गम्भीर हो गए। रमेश को शीघ्र जाना था और वह नमस्कार कर चला गया, परन्तु राणा साहब न जाने कितने समय तक स्थिर मूर्ति बने वहीं बैठे सोचते रहे। अकस्मात् उठे और इसी चिंता को लिए वह बैठक में पहुंचे। बैठक में रेडियो की आवाज सुनकर वह ठिठक गए। देखा, रेखा बैठी रेडियो सुन रही है। उन्हें देखते ही वह भौंचक्की-- सी रह गई और उसने रेडियो बन्द कर दिया।
'बन्द क्यों कर दिया?'
'अकेली थी तो बजा रही थी, अब आप जो आ गए।’
'ठीक है, अकेले में मन बहलाने का यह अच्छा साथी है।’
‘जी..' रेखा न्रे बाबा के स्वर में तीक्ष्णता का अनुभव किया, बात का बतंगड़ न हो, इस अभिप्राय से वह बोली-’चाय लाऊं...।'
'हां, परन्तु जल्दी, बाहर जाना है... देखो, मां से कह दो कि तैयार हो जाए और तुम भी...।'
'कहां चलिएगा?'
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