भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
लाल किला
कल रात
बहुत देर तक रोता रहा
लाल किला,
जब
मैं उसे प्रणाम करने गया।
उसने मुझे रोक दिया
'न' की मुद्रा में
उसका बूढ़ा सिर
न जाने कितनी बार हिला
मैंने देखा-
वह,
बहुत कमज़ोर हो गया है
उसकी सुदृढ़ दीवारें,
दरक गई थीं
और
परकोटे, दालान में
अपनी श्रेष्ठता के सवाल पे
झगड़ रहे थे।
वहीं, एक ओर पड़े थे
ज़फ़र, मंगल और गांधी के
खून से लथपथ शरीर
जिन्हें
मेरे सामने रौंदती
कई जोड़ा काली आकृतियां
बुर्ज पर इठलाते
तिरंगे की ओर लपकीं
और
उसके रंग
आपस में बाँट लिए।
मैं
लौट पड़ा
उसने, कतई नहीं रोका
बस, सुबकता रहा
मेरे ओझल होने तक।
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