भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
भोगा हुआ यथार्थ
साथी !
तब
तुम डगमगा रहे थे
जीवन पथ पर
निराशाओं से घिरे,
आकांक्षाओं से
कोई वास्ता न था
तुम्हारा।
अब,
जबकि संयत हो गए हो
तुम,
मैं भटकने सा लगा हूँ
अपने आप में
और
देखते ही देखते
ओझल हो रहे हो
तुम,
पुकारने पर भी
नहीं ठिठक रहे।
इसमें तुम्हारा दोष नहीं,
शायद
तुम भोग चुके होगे
वह यथार्थ
जीवन का-
जो, मैं अब भोग रहा हूँ!
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