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पीढ़ी का दर्द

सुबोध श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9597
आईएसबीएन :9781613015865

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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।


आज कविता, परम्परागत काव्यशास्त्रीय दायरों में बंधकर मध्ययुगीन या छायावादी काव्यादर्शों के अनुरूप नहीं लिखी जा रही है। वह आदमी को महज आदमी बनाये रखने के लिए सम्वेदनात्मक सम्वाद के रूप में प्रस्तुत हो रही है। आज कविता, आदमी में देवत्व की प्रतिष्ठा करने की पक्षधर नहीं है, वह आदमी को जीवन की उन प्रक्रियाओं से जोड़ने का प्रयास करती है जहाँ से गुजर कर एक आम आदमी, आदमी होने का एहसास करता है। श्री सुबोध श्रीवास्तव की रचनायें ऐसी ही तमाम उन प्रक्रियाओं से गुजर कर हुए एहसास का सम्वेदनात्मक सम्वाद है, जहाँ सामान्यजन अपने होने की अनुभूति करके स्वयं की सहभागिता दर्ज करता है।

'पीढ़ी का दर्द' संकलन की रचनायें समाज की पारम्परिक जटिलताओं, अंधविश्वासों, अन्तर्विरोधों और असंगतियों में भटकते हुए मनुष्य की मानवीय धरातल पर एक रोशनी की तलाश है-

तुम
अपनी कमज़ोर पीठ पर
पहाड़ सा बोझ
ढोते रहो
मगर
उफ़
बिलकुल न करना
मेरे दोस्त!
तुम, दर्द से छटपटाना
मगर
भूलकर भी
कराहना मत।

एक अजब सी बेबसी का एहसास कराती सुबोध की कविता, छायावादोत्तर हिन्दी कबिता की दलीय दृष्टिवादी कविता, फ्रायड की मनोविश्लेषणवादी कविता, मूल्य दृष्टिप्रधान भावनावादी कविता, अविचारवादी अकविता, तथा जिसकी विद्रोहवादी प्रवृत्ति के विरुद्ध स्थापित हुई प्रतिबद्ध कविता आदि अल्पकालीन काव्यान्दोलनों की तरह कोई काव्यान्दोलन तो नहीं है और न ही इन पूर्ववर्त्ती काव्यान्दोलनों का अंग ही है परन्तु वह आदमी की नियति उसके सोच, व्यवहार, आशा-निराशा, तथा आह्लाद और विषाद से गहरा सरोकार रखती है। वस्तुत: सुबोध की कविता आम आदमी की मात्र हमदर्द नहीं वरन् सहयात्री भी है-

दर्द से बिलबिलाते
मरियल आदमी का
हाल बताने के लिए
डाक्टर का दरबाजा
खटखटाने पर
डांट खाते तीमारदार।

इस सहयात्रा में उद्‌भूत विचार ही उनकी रचनाप्रक्रिया को नियंत्रित करता है तथा उनकी भाषा, बिम्ब, एवं प्रतीक योजना भी इन्हीं उद्‌भूत विचारों के अनुरूप ही निर्धारित होती है।

श्री सुबोध की कविताओं में पूर्व निर्धारित धारणाओं और विचार परम्पराओं का आरोपण नहीं है। वरन् वह प्रत्यक्षानुभूति पर बल देती है। रोजमर्रा की बीत रही ज़िन्दगी उन्हें यंत्रचालित सी लगती है-

आजकल
कुछ अनमना सा है
सूरज
रोज उठता है अंधेरे मुँह
यंत्रचालित सा
नापने
रोशनी से अँधेरे तक का फासला।

'पीढ़ी का दर्द' की रचनाओं में यथार्थ और सम्भावनाओं का सुन्दर संयोजन हुआ है। आज कविता पर दुर्बोध एवं जटिल होने का आरोप लगाया जाता है। यह भी कहा जाता है अपनी शिल्पगत जटिलताओं के कारण आज कविता आम पाठक से दूर हो गई है किन्तु सुबोध की कवितायें इन आरोपों के प्रतिपक्ष खड़ी रचनायें हैं। उनकी रचनायें सहज बोध और समूह-सम्वेदना की रचनायें हैं। पत्रकार होने के नाते सुबोध की सामाजिक सहभागिता किसी न किसी रूप में अधिक है। उनकी यह सामाजिक सहभागिता का परिणाम उनकी कविताओं में नव्यतम्-बोध के रूप में देखने को मिलता है। वस्तुतः उनकी रचनायें व्यक्ति और समाज दोनों की सम्वेदनाओं, परिवेशजन्य दबावों एवं परिस्थितिजन्य तनावों का सार्थक साक्षात्कार है। जो उनके युग-जीवन के गहरे सरोकारों, के साथ जुड़े होने को भी प्रमाणित करता है।

मुझे विश्वास है हिन्दी जगत में इस कृति का भरपूर स्वागत होगा।

- डा० यतीन्द्र तिवारी
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