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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

वरदान के साथ शाप का संघर्ष

वरदान के प्रभावसे सुनीथाका पुत्र सभी लक्षणोंसे सम्पन्न हुआ। पुत्रका नाम वेन रखा गया। अत्रिके वंशके अनुरूप इस बच्चेने वेद, दर्शन आदि सारी विद्याओंमें निपुणता प्राप्त कर ली। धनुर्वेदमें भी यह निष्णात हो गया। शील-सौजन्यने इसकी सुन्दरतामें निखार ला दिया था। वेनमें अद्भुत तेज था। आचार-विचारमें कोई उसकी समता नहीं कर पाता था।

उस समय वैवस्वत मन्वन्तर था। राजाके बिना प्रजाको कष्ट होने लगा था। विश्वभरमें वेनका प्रभाव उदीप्त था। वेनके समकक्ष और कोई तरुण न था। सबने मिलकर उसे प्रजापतिके पदपर प्रतिष्ठित कर दिया। वेनके राज्यमें चतुर्दिक् सुख-शान्ति प्रतिष्ठित हो गयी। सभी संतुष्ट और सुखी थे। धर्मकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही थी।

बहुत दिनोंसे गन्धर्वकुमारका शाप वेनपर अपना प्रभाव प्रकट करना चाह रहा था, किंतु अनुकूल परिस्थिति न पाकर दबा हुआ था। संयोगसे वेनकी एक घोर नास्तिकसे भेंट हो गयी। इस संसर्गसे शापको पनपनेका अवसर मिल गया। नास्तिकताका प्रभाव उसपर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। थोड़े ही दिनोंमें वेन घोर नास्तिक बन बैठा। वेद, पुराण, स्मृति आदि शास्त्र उसे जाल-ग्रन्थ दीखने लगे। संध्योपासन, तर्पण, यज्ञ, श्राद्ध आदि सत्कर्म उसे जाल दीखते और ब्राह्मण बहुत बड़े वंचक। माता-पिताके सामने सिर झुकाना भी उसे बुरा लगने लगा। वेन समर्थ तो था ही, उसने सम्पूर्ण वैदिक क्रिया-कलापोंपर रोक लगा दी। राज्यमें धर्मका लोप हो गया। पाप जोरोंसे बढ़ने लगा।

पिता अंग अपने पुत्रका यह घोर अत्याचार देखकर बहुत दुःखी हो गये। उनकी समझमें नहीं आ रहा था कि भगवान् विष्णुका वह वरदान विफल कैसे हो रहा है! वे शापकी बात नहीं जानते थे। सुनीथा सब बातें समझ तो रही थी, किंतु उसे खोलना नहीं चाहती थी। अत्रिकुमार अंगने पुत्रको समझा-बुझाकर रास्तेपर लाना चाहा, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।

इसी बीच सप्तर्षि आये। अब वरदानको चेतनेका अवसर आ गया था। सप्तर्षियोंने बहुत प्यारसे वेनको समझाते हुए कहा-'वेन! दुःसाहस छोड़ दो। अपने पुराने रास्तेपर आ जाओ। सारी जनता तुमपर अवलम्बित है। धर्मके पथपर लौट आओ और प्रजापर अत्याचार करना बंद कर दो।'

किंतु अहंकारकी मूर्ति वेनने सप्तर्षियोंको फटकारते हुए

कहा-'मैं ज्ञानियोंका ज्ञानी हूँ। विश्वका ज्ञान मेरा ही ज्ञान है। जो मेरी आज्ञाके विरुद्ध चलता है, उसे मैं कठोर दण्ड देता हूँ। आपलोग भी मेरा भजन करें।'

ऋषियोंने जब वेनके इस रोगको असाध्य समझा और उसके पापको बलपूर्वक निकालना चाहा, तब झट उन्होंने वेनको पकड़ लिया और उसके बायें हाथको भलीभांति मथा। फलस्वरूप इस हाथसे एक काला-कलूटा और नाटा पुरुष उत्पन्न हुआ। उस पुरूषके रूपमें वेनका सब पाप निकल गया। यह देख ऋषि बहुत प्रसन्न हुए। अब उन्होंने वेनके दाहिने हाथको मथा। इससे अपने वरदानको फलीभूत करनेके लिये भगवान् विष्णु ही पृथुके रूपमें प्रकट हुए।

पापके निकलते ही वेनकी नास्तिकता भी पूरी तरह निकल गयी थी। सप्तर्षियोंकी कृपासे वेनने अपनी पहली अवस्था प्राप्त कर ली थी। वे नर्मदाके तटपर चले गये। तृणविन्दुके आश्रममें रहकर उन्होंने घोर तपस्या की। भगवान् ने उन्हें दर्शन दिया और उन्हें आश्वस्त करनेके लिये कहा-'वत्स! तुम्हारी माँको जो शाप मिला था, उससे तुम्हारा उद्धार करनेके लिये ही मैंने तुम्हारे पिताको सुयोग्य पुत्र प्राप्त होनेका वरदान दिया था। अब तुम घर लौट जाओ। पृथुकी सहायतासे अश्वमेध आदि यज्ञ और विविध दान-उपदान कर मेरे लोकमें आना।' 

(पद्मपुराण)


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