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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


शिवोपासना का अद्भुत फल


प्राचीन कालमें एक राजा थे, जिनका नाम था इन्द्रद्युम्न। वे बड़े दानी, धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे। धनार्थियों को वे सहस्र स्वर्णमुद्राओं से कम दान नहीं देते थे। उनके राज्य में सभी एकादशी के दिन उपवास करते थे। गंगा की बालुका, वर्षा की धारा और आकाश के तारे कदाचित् गिने जा सकते हैं, पर इन्द्रद्युम्न के पुण्यों की गणना नहीं हो सकती। इन पुण्यों के प्रताप से वे सशरीर ब्रह्मलोक चले गये। सौ कल्प बीत जानेपर ब्रह्माजीने उनसे कहा-'राजन! स्वर्गसाधन में केवल पुण्य ही कारण नहीं है अपितु त्रैलोक्यविस्तृत निष्कलंक यश भी अपेक्षित होता है। इधर चिरकाल से तुम्हारा यश क्षीण हो रहा है, उसे पुनः उज्जवल करने के लिये तुम वसुधातल पर जाओ।'

ब्रह्माजीके ये शब्द समाप्त भी न हो पाये थे कि राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने को पृथ्वीपर पाया। वे अपने निवासस्थान काम्पिल्य नगरमें गये और वहाँके निवासियों से अपने सम्बन्ध में पूछताछ करने लगे। उन्होंने कहा-'हमलोग तो उनके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जानते। आप किसी वृद्ध चिरायु से पूछ सकते हैं। सुनते हैं नैमिषारण्य में सप्तकल्पान्तजीवी मार्कण्डेयमुनि रहते हैं, कृपया आप उन्हीं से इस प्राचीन बात का पता लगाइये।'

जब राजा ने मार्कण्डेयजी से प्रणाम करके पूछा कि 'मुने! क्या आप राजा इन्द्रद्युसको जानते है?'

तब उन्होंने कहा-'नहीं, मैं तो नहीं जानता, पर मेरा मित्र नाड़ीजंघ बक शायद इसे जानता हो, इसलिये चलो, उससे पूछा जाय।'

नाड़ीजंघ ने अपनी बड़ी विस्तृत कथा सुनायी और साथ ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपने से भी अति दीर्घायु प्राकार कर्म उलूक के पास चलने की सम्मति दी। पर इसी प्रकार सभी अपने को असमर्थ बतलाते हुए चिरायु गृध्रराज और मानसरोवर में रहनेवाले कच्छप मन्थर के पास पहुँचे। मन्थर ने इन्द्रद्युम्न को देखते ही पहचान लिया और कहा कि 'आपलोगों में जो यह पाँचवाँ राजा इन्द्रद्युम्न है, इसे देखकर मुझे बड़ा भय लगता है; क्योंकि इसी के यज्ञ में मेरी पीठ पृथ्वी की उष्णता से जल गयी थी।' अब राजा की कीर्ति तो प्रतिष्ठित हो गयी, पर उसने क्षयिष्णु स्वर्गमें जाना ठीक न समझा और मोक्षसाधन की जिज्ञासा की। एतदर्थ मन्थर ने लोमशजी के पास चलना श्रेयस्कर बतलाया। लोमशजी के पास पहुँचकर यथाविधि प्रणामादि करनेके पश्चात् मन्थर ने निवेदन किया कि इन्द्रद्युम्न कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।

महर्षि लोमशकी आज्ञा लेनेके पश्चात् इन्द्रद्युम्न ने कहा-'महाराज! मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि आप कभी कुटिया न बनाकर शीत, आतप तथा वृष्टिसे बचनेके लिये केवल एक मुट्ठी तृण ही क्यों लिये रहते हैं?'

मुनिने कहा-'राजन्! एक दिन मरना अवश्य है फिर शरीर का निश्चित नाश जानते हुए भी हम घर किसके लिये बनायें? यौवन, धन तथा जीवन-ये सभी चले जानेवाले हैं। ऐसी दशामें 'दान' ही सर्वोत्तम भवन है।'

इन्द्रद्युम्न ने पूछा - 'मुने! यह आयु आपको दान के परिणाम मे मिली है अथवा तपस्या के प्रभाव से? मैं यह जानना चाहता हूँ।'

लोमशजीने कहा-'राजन्! मैं पूर्वकाल में एक दरिद्र शूद्र था। एक दिन दोपहर के समय जल के भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिंग देखा। भूख से मेरे प्राण सूखे जा रहे थे। उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमल के सुन्दर फूलों से उस शिवलिंग का पूजन किया और पुनः मैं आगे चल दिया। क्षुधातुर होने के कारण मार्ग में ही मेरी मृत्यु हो गयी। दूसरे जन्म में मैं ब्राह्मण के घर में उत्पन्न हुआ। शिवपूजा के फलस्वरूप मुझे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहने लगा। मैंने जान-बूझकर मौन धारण कर ली। पितादि की मृत्यु हो जाने पर सम्बन्धियों ने मुझे निरा गूँगा जानकर सर्वथा त्याग दिया। अब मैं रात-दिन भगवान् शंकर की आराधना करने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। प्रभु चन्द्रशेखर ने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और मुझे इतनी दीर्घ आयु दी।'

यह जानकर इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध और उलूक ने भी लोमशजी से शिवदीक्षा ली और तप करके मोक्ष प्राप्त किया।

(स्कन्दपुराण)


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