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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


प्रतिशोध ठीक नहीं होता


बालक पिप्पलाद ने जब होश सँभाला, तब ओषधियों को अपने अभिभावक के रूप में देखा। वृक्ष फल देते थे, पक्षी दाने लाते थे और मृग हरी वस्तुएँ। ओषधियों अपने राजा सोमसे माँगकर अमृतकी घूंटें पिप्पलादको पिलाया करती थीं। यह दृश्य देखकर पिप्पलादने वृक्षोंसे पूछा-'देखा यह जाता है कि मनुष्य माता-पितासे मनुष्य तथा वनस्पतियोंसे वनस्पति पैदा होते हैं, किंतु मैं आप वनस्पतियोंका पुत्र होकर भी मनुष्य कैसे हो गया?' इसके उत्तरमें वनस्पतियोंने पिप्पलादको उसके जन्मकी कथा सुनाते हुए कहा-'महर्षि दधीचि तुम्हारे पिता और (गभस्तिनी) तुम्हारी माता हैं। इस तरह तुम मनुष्यके ही पुत्र हो। तुम्हारे माता-पिता हमें पुत्रकी तरह मानते थे, अतः हम भी तुम्हें पुत्र ही मानती आ रही हैं। तुम्हारी माँने अपना पेट चीरकर तुम्हें पैदा किया था और हमें सौंपकर स्वयं सती हो गयी थीं। तुम्हारे माता-पिताके मर जानेके बाद समूचा वन बहुत दिनोंतक रोता रहा। वे हमें प्यार करते थे और हम सब उन्हें।' इतना कहकर वनस्पतियाँ फूट-फूटकर रो पड़ी।

यह सुनकर बालक पिप्पलादको बहुत विस्मय हुआ। उसने अपने माता-पिताकी कहानी जाननी चाही। वनस्पतियोंने उनके माता-पिताको श्रद्धासे नमनकर उनकी जीवन-गाथा प्रारम्भ की-'तुम्हारे पिताका नाम दधीचि था। उनमें सभी उत्तम गुण विद्यमान थे। तुम्हारी माता उत्तम कुलकी कन्या और पतिव्रता थीं। उनका नाम गभस्तिनी था। वे लोपामुद्राकी बहन थीं। तुम्हारे माता-पिताने तपस्या कर इतनी सामर्थ्य अर्जन कर ली थी कि उनके आश्रमपर दैत्य-दानवोंका आक्रमण नहीं हो पाता था। एक दिन विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवता आश्रममें आये। दैत्योंपर विजय पानेसे वे प्रसन्न थे। तुम्हारे माता-पिताने उनका भावभीना सत्कार किया। देवताओंने कहा-'आप-जैसे महर्षि जब हम लोगोंपर इतनी कृपा रखते हैं, तब हमारे लिये क्या दुर्लभ है? हमने शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली है। अब चाहते हैं कि अपने अस्त्र-शस्त्र आपके आश्रममें रख दें, क्योंकि तीनों लोकोंमें आपका आश्रम ही निरापद स्थान है। यहाँ आपकी तपस्याके प्रभावसे दैत्य आदि प्रवेश नहीं कर पाते।'

उदारचेता मुनिने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तुम्हारी माताने उन्हें रोकते हुए कहा-'नाथ! यह कार्य विरोध उत्पन्न करनेवाला है। इस काममें आप न पड़े। आप तो समदर्शी हैं। आपके लिये शत्रु-मित्र बराबर हैं। अस्त्र-शस्त्र रखनेसे दैत्य और दानव आपसे शत्रुता रखने लगेंगे। धरोहर-रूपमें किसीका धन रखना साधु पुरुषोंके लिये उचित नहीं कहा गया है।'

महर्षि दधीचिने कहा-'देवता सृष्टिके रक्षक हैं और मैंने 'हाँ' कर भी दिया है, इसलिये अब 'नहीं' कहना अनुचित है।' देवता अस्त्र-शस्त्र आश्रममें रखकर चले गये। इधर दैत्य महर्षिसे द्वेष करने लगे। महर्षिको चिन्ता हुई कि दैत्य बड़े वीर तो हैं ही, साथ ही तपस्वी भी हैं। जब वे आक्रमण करेंगे तब मैं शस्त्रोंकी रक्षा नहीं कर पाऊँगा, ऐसा विचारकर उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंकी रक्षाके लिये एक उपाय किया। उन्होंने पवित्र जलको अभिमन्त्रित कर उससे अस्त्र-शस्त्रोंको नहलाया और उस जलको स्वयं पी लिया। तेज निकल जानेसे वे सभी अस्त्र-शस्त्र शक्तिहीन हो गये। इसलिये वे धीरे-धीरे नष्ट हो गये।

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