लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

1 पाठक हैं

नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

सरयूके सुन्दर तटपर विवाह-मण्डप रचा गया। महाराज मान्धाताने अपनी पचास पुत्रियोंका विवाह महर्षि सौभरि काण्वके साथ एक साथ पुलकितवदन होकर कर दिया और दहेजमें विपुल सम्पत्ति दी-सत्तर-सत्तर गायोंके तीन झुंड, श्यामवर्ण वृषभ, जो इन सबके आगे-आगे चलता था, अनेक घोड़े, नाना प्रकारके रंग-बिरंगे कपड़े, अनमोल रत्न। गृहस्थ-जीवनको रसमय बनानेवाली समस्त वस्तुओंको एक साथ एक ही जगह पाकर मुनिकी कामनावल्ली लहलहा उठी। इन वस्तुओंसे सज-धजकर रथपर सवार हो मुनि जब यमुना-तटकी ओर आ रहे थे, उस समय रास्तेमें वज्रपाणि भगवान् इन्द्रका देवदुर्लभ दर्शन उन्हें प्राप्त हुआ। ऋषि आनन्दसे गद्गद स्वरमें स्तुति करने लगे-

'भगवन्! आप अनाथोंके नाथ हैं और हमलोग बन्धुहीन ब्राह्मण हैं। आप प्राणियोंकी कामनाओंकी तुरंत पूर्ति करनेवाले हैं। आप सोमपानके लिये अपने तेजके साथ हमारे यहाँ पधारिये।'

स्तुति किसे प्रसन्न नहीं करती। इस स्तुतिको सुनकर देवराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और ऋषिसे आग्रह करने लगे कि 'वर माँगो।' सौभरिने अपने मस्तकको झुकाकर विनयभरे शब्दोंमें कहना आरम्भ किया-'प्रभो! मेरा यौवन सदा बना रहे, मुझमें इच्छानुसार नाना रूप धारण करनेकी शक्ति हो, अक्षय रति हो और इन पचास पत्नियोंके साथ एक ही समय रमण करनेकी सामर्थ्य मुझमें हो जाय। विश्वकर्मा मेरे लिये सोनेके ऐसे महल बना दें, जिनके चारों ओर कल्पवृक्षसे युक्त पुष्प-वाटिकाएँ हों। मेरी पत्नियोंमें किसी प्रकारकी स्पर्धा, परस्पर कलह कभी न हो। आपकी दयासे मैं गृहस्थीका पूरा-पूरा सुख उठा सकूँ।'

इन्द्रने गम्भीर स्वरमें कहा-'तथास्तु।' देवताने भक्तकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। भक्तका हृदय आनन्दसे गद्गद हो उठा।

वस्तुके पानेकी आशामें जो आनन्द आता है, वह उसके मिलनेपर नहीं होता। मनुष्य उसे पानेके लिये बेचैन बना रहता है, लाखों चेष्टाएँ करता है, उसकी कल्पनासे ही उसके मुँहसे लार टपकने लगती है, परंतु वस्तुके मिलते ही उसमें विरसता आ जाती है, उसका स्वाद फीका पड़ जाता है, उसकी चमक-दमक जाती रहती है और प्रतिदिनकी गले पड़ी वस्तुओंके ढोनेके समान उसका भी ढोना दूभर हो जाता है। गृहस्थीमें दूरसे आनन्द अवश्य आता है, परंतु गले पड़नेपर उसका आनन्द उड़ जाता है, केवल तलछट शेष रह जाती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book