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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

संगतिने सोयी हुई वासनाको जोरोंसे झकझोर कर जगा दिया। वह अपनेको प्रकट करनेके लिये मार्ग खोजने लगी।

तपका उद्देश्य केवल शरीरको नाना प्रकारके साधनोंसे तप्त करना नहीं है, प्रत्युत मनको तप्त करना है। सच्चा तप मनमें जमे हुए कामके कूड़े-करकटको जलाकर राख बना देता है। आगमें तपाये हुए सोनेकी भांति तपस्यासे तपाया गया चित्त खरा उतरता है। तप स्वयं अग्निरूप है। उसकी साधना करनेपर क्या कभी चित्तमें अज्ञानका अन्धकार अपना घर बना सकता है? उसकी ज्वाला वासनाओंको भस्म कर देती है और उसका प्रकाश समग्र पदार्थोंको प्रकाशित कर देता है। शरीरको पीड़ा पहुँचाना तपस्याका स्वाँगमात्र है। नहीं तो, क्या इतने दिनोंकी घोर तपस्याके बाद भी सौभरिके चित्तमें प्रपज्ञसे विरति, संसारसे वैराग्य और भगवान् के चरणोंमें सच्ची रति न होती?

वैराग्यसे वैराग्य ग्रहणकर तथा तपस्याको तिलांजलि देकर महर्षि सौभरि प्रपंचकी ओर मुड़े और अपनी गृहस्थी जमानेमें जुट गये। विवाहकी चिन्ताने उन्हें कुछ बेचैन कर डाला। गृहिणी घरकी दीपिका है, धर्मकी सहचारिणी है। पत्नीकी खोजमें उन्हें दूर-दूर जाना पड़ा। रत्न खोज करनेपर ही प्राप्त होता है, घरके कोनेमें अथवा दरवाजेपर बिखरा हुआ थोड़े ही मिलता है-'न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्।' उस समय महाराज मान्धाताके प्रबल प्रतापके सामने संसारके समस्त नरेश नतमस्तक थे। वे सूर्यवंशके मुकुटमणि महाराज युवनाश्वके पुत्र थे। आर्योंकी सभ्यतासे सदा द्वेष रखनेवाले दस्युओंके हृदयमें इनके नाममात्रसे कम्प उत्पन्न हो जाता था। वे सरयूके तटपर बसी अयोध्या नगरीमें स्थित होकर विश्वके समस्त भू-भागपर शासन करते थे।

महर्षिको यमुनातटसे सरयूके तीरपर अयोध्याकी राज्यसभामें सहसा उपस्थित देखकर उन्हें उतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना उनके राजकुमारीसे विवाह करनेके प्रस्तावपर। इस वृद्धावस्थामें इतनी कामुकता! इनके तो अब दूसरे लोकमें जानेके दिन समीप आ रहे हैं, परंतु आज भी इस लोकमें गृहस्थी जमानेका यह आग्रह! परंतु सौभरिकी इच्छाका विघात करनेसे भी उन्हें भय मालूम होता था।

उनके हृदयमें एक विचित्र द्वन्द्व मच गया। एक ओर तो वे अभ्यागत तपस्वीकी कामना पूर्ण करना चाहते थे, परंतु दूसरी ओर उनका पितृत्व चित्तपर आघात देकर कह रहा था-इस वृद्ध जरद्गवके गलेमें अपनी सुमन-सुकुमार सुताको मत बाँधो। राजाने इन विरोधी वृत्तियोंको बड़ी कुशलतासे अपने चित्तके कोनेमें दबाकर सौभरिके सामने स्वयंवरका प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा-'क्षत्रिय-कुलकी कन्याएँ गुणवान-पतिको स्वयं वरण किया करती हैं'। अतः आप मेरे अन्तःपुर-संरक्षकके साथ जाइये। जो कन्या आपको अपना पति बनाना स्वीकार करेगी, उसका मैं आपके साथ विधिवत् विवाह कर दूँगा।' कंच्चुकी वृद्धको अपने साथ लेकर अन्तपुरमें चला, परंतु तब उसके कौतुककी सीमा न रही, जब वे वृद्ध अनुपम सर्वांग-शोभन युवकके रूपमें महलमें दीख पड़े। रास्तेमें ही सौभरिने तपस्याके

बलसे अपने रूपको बदल लिया। जो देखता, वही मुग्ध हो जाता। स्निग्ध श्यामल शरीर ब्रह्मतेजसे चमकता हुआ चेहरा, उन्नत ललाट, अंगोंमें यौवनसुलभ स्फूर्ति, नेत्रोंमें विचित्र दीप्ति, जान पड़ता था मानो स्वयं अनंग अंग धारण कर रतिकी खोजमें सजे हुए महलोंके भीतर प्रवेश कर रहा हो। सुकुमारी राजकन्याओंकी दृष्टि इस युवक तापसपर पड़ी। चार आँखें होते ही उनका चित्त-भ्रमर मुनिके रूप-कुसुमकी माधुरी चखनेके लिये विकल हो उठा। पिताका प्रस्ताव सुनना था कि सबने मिलकर मुनिको घेर लिया और एक स्वरसे मुनिको वरण कर लिया। राजाने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।

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