ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँस्वामी रामसुखदास
|
5 पाठकों को प्रिय 1 पाठक हैं |
नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।
महर्षि सौभरि की जीवन-गाथा
वासना का राज्य अखण्ड है। वासना का विराम नहीं। फल मिलनेपर यदि एक वासना को हम समाप्त करने में समर्थ भी होते हैं तो न जाने कहाँ से दूसरी और उससे भी प्रबलतर वासनाएँ पनप जाती हैं। प्रबल कारणों से कतिपय वासनाएँ कुछ कालके लिये लुप्त हो जाती हैं, परंतु किसी उत्तेजक कारणके आते ही वे जाग पड़ती हैं। भला कोई स्वप्नमें भी सोच सकता था कि महर्षि सौभरि काण्वका दृढ़ वैराग्य मीनराजके सुखद गार्हस्थ्य-जीवनको देखकर वायुके एक हलके-से झकोरेसे जड़से उखड़कर भूतलशायी बन जायगा?
महर्षि सौभरि कण्व-वंशके मुकुट थे, उन्होंने वेद-वेदांगका गुरु-मुखसे अध्ययन कर धर्मका रहस्य भलीभांति जान लिया था। उनका शास्त्र-चिन्तन गहरा था, परंतु उससे भी अधिक गहरा था उनका जगत्के प्रपज्ञोंसे वैराग्य। जगत् के समग्र विषय-सुख क्षणिक हैं। जब चित्तको उनसे यथार्थ शान्ति नहीं मिल सकती, तब कोई विवेकी पुरुष अपने अनमोल जीवनको इन कौड़ीके तीन विषयोंकी ओर क्यों लगायेगा? आजका विशाल सुख कल ही अतीतकी स्मृति बन जाता है। जब पलभरमें सुखकी सरिता सूखकर मरुभूमिके विशाल बालूके ढेरके रूपमें परिणत हो जाती है, तब कौन विज्ञ पुरुष इस सरिताके सहारे अपनी जीवन-वाटिकाको हरी-भरी रखनेका उद्योग करेगा? सौभरिका चित्त इन भावनाओंकी रगड़से इतना चिकना बन गया था कि पिता-माताका विवाह करनेका प्रस्ताव चिकने घड़ेपर जल-बूँदके समान उनपर टिक न सका।
उन्होंने बहुत समझाया-'अभी भरी जवानी है, अभिलाषाएँ उमड़ी हुई हैं, तुम्हारे जीवनका यह नया वसंत है, कामना-मंजरीके विकसित होनेका उपयुक्त समय है, रसलोलुप चित्त-भ्रमरको इधर-उधरसे हटाकर सरस माधवीके रसपानमें लगाना है। अभी वैराग्यका बाना धारण करनेका अवसर नहीं।' परंतु सौभरिने किसीके शब्दोंपर कान न दिया। उनका कान तो वैराग्यसे भरे, अध्यात्म-सुखसे सने, सात्त्विक गीतोंको सुननेमें न जाने कबसे लगा हुआ था।
पिता-माताका अपने पुत्रको गार्हस्थ्य-जीवनमें लानेका उद्योग सफल न हो सका। पुत्रके हृदयमें भी देरतक द्वन्द्व मचा रहा। एक बार चित्त कहता-माता-पिताके वचनोंका अनादर करना पुत्रके लिये अत्यन्त हानिकारक है, परंतु दूसरी बार एक विरोधी वृत्ति धक्का देकर सुझाती-'आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।' आत्मकल्याण ही सबसे बड़ी वस्तु ठहरी। गुरुजनोंके वचनों और कल्याण-भावनामें विरोध होनेपर हमें आत्मकल्याणसे पराङ्मुख नहीं होना चाहिये। सौभरि इस अनार्युद्धको अपने हृदयके कोनेमे बहुत देरतक छिपा न सके और घरसे सदाके लिये नाता तोड़कर उन्होंने इस युद्धको भी विराम दिया। महर्षिके जवानीमें ही वैराग्यसे और अकस्मात् घर छोड़नेसे लोगोंके हृदय विस्मित हो उठे।
|