उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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अमृतलाल सुरेश्वर पण्डित का लड़का ही था। कुलवन्तसिंह के यह कहने पर कि उसका विवाह बिलासपुर के एक रिटायर्ड तहसीलदार की लड़की से हुआ है, वह सब समझ गया था। उसके सामने द्विविधा उत्पन्न हो गयी थी कि वह अपना पूर्ण परिचय अपने अफसर को दे अथवा इसे किसी प्रकार छुपा कर रखे।
रात-भर वह अपने क्वार्टर में लेटा-लेटा इस भाग्य की विडम्बना पर विचार करता रहा। उसे अभी भी अपनी पत्नी से नाराजगी थी। वह अपने बाबा से भी नाराज ही था। वह समझता था कि उसके अपनी पत्नी से मधुर सम्बन्धों में उसने ही विष घोला था।
इतना वह समझ गया था कि यदि स्कवाड्रन लीडर साहब ने अपनी पत्नी को उसके विषय में कुछ भी बताया तो गरिमा तुरन्त समझ जायेगी और वह अपने पति को और अधिक जानने का आग्रह करेगी।
इस स्थिति में उसने निश्चय किया कि यदि मेजर साहब स्वयं ही बात करेंगे तो वह विचार कर लेगा कि कितना अधिक बताये। वह यह भी समझता था कि गरिमा से अपना सम्बन्ध बताकर वह किसी प्रकार का गरिमा के जीवन में विष नहीं घोलना चाहेगा।
अगले दिन कुलवन्तसिंह अपने स्क्वाड्रन के साथ एक घण्टा-भर की उड़ान का अभ्यास कर जब भूमि पर उतरा तो उसने अमृत को अपने कार्यालय में बुलाकर उसकी कुशलता की प्रशंसा कर दी। अमृत ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘श्रीमान्! मैं तो वायु-सेना में एक ग्राउण्ड इन्जीनियर के रुप में भरती हुआ था। मैंने बैंगलोर में यही काम सीखा था। परन्तु जबलपुर में मेजर वासवानी को मैं एक दिन जबलपुर से दिल्ली तक हवाई जहाज में लाया था। मार्ग में ही उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने यह सुझाव दिया कि मैं ‘ऐक्टिव सर्विस’ में आ जाऊँ? मैंने बताया कि मेरी ‘ट्रेनिग’ उस दिशा में नहीं है। उन्होंने मुझे ‘ट्रेनिंग’ दिलवाले की सुविधा का वचन दिया। मैंने ‘ट्रेनिंग’ ली और फिर परीक्षा दी तो पायलट नियुक्त हो गया हूँ। मुझे यह काम करते हुए दो वर्ष हो गये हैं। अब यहाँ बदली हो गयी है।’’
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