ई-पुस्तकें >> नया भारत गढ़ो नया भारत गढ़ोस्वामी विवेकानन्द
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संसार हमारे देश का अत्यंत ऋणी है।
जाति-व्यवस्था सर्वदा
बड़ी लचीली रही है, कभी कभी तो इतनी लचीली कि
सांस्कृतिक दृष्टि से अति निम्नस्तरीय लोगों के स्वस्थ अभ्युदय की उसमें
संभावना ही नहीं रही। कम से कम सैद्धांतिक दृष्टि से जाति- व्यवस्था ने
समूचे भारत को संपत्ति के और तलवार के प्रभुत्व में न ले जाकर बुद्धि के -
आध्यात्मिकता द्वारा परिशुद्ध और नियंत्रित बुद्धि के निर्देशन में रखा।
... अन्य प्रत्येक देश में सर्वोच्च सम्मान क्षत्रिय को जिसके हाथ में
तलवार है दिया गया है। भारत में सवोंच्च प्रतिष्ठा शांति के उपासक को
श्रमण, ब्राह्मण, भगवत्पुरुष को दी गयी है। अन्य प्रत्येक देश का
जातिविधान एक व्यक्ति को - स्त्री हो या पुरुष पर्याप्त इकाई मानता है।
संपत्ति, शक्ति, बुद्धि अथवा सौंदर्य किसी भी व्यक्ति के लिए अपने जन्म का
जातीय स्तर त्यागकर कहीं भी ऊपर उठ जाने के लिए पर्याप्त साधन होते हैं।
यहाँ भी व्यक्ति को इस बात का पूरा अवसर है कि एक निम्न जाति से उठकर उच्च
या उच्चतम जाति तक पहुँच जाय। केवल एक शर्त है, परमार्थवाद के जन्मदाता इस
देश में व्यक्ति को विवश किया गया है कि वह अपनी अपनी समूची जाति को अपने
साथ ऊपर उठाये।
जाति वास्तव में क्या है,
यह लाखों में से एक भी नहीं समझता। संसार में एक
भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ जाति-भेद न हो। भारत में हम जाति के द्वारा ऐसी
स्थिति में पहुँचते हैं जहाँ जाति नहीं रह जाती। जाति- प्रथा सदा इसी
सिद्धांत पर आधारित है। भारत में योजना है कि प्रत्येक मनुष्य को ब्राह्मण
बनाया जाय, ब्राह्मण मानवता का आदर्श है। यदि आप भारत का इतिहास पढ़ेंगे,
तो पायेंगे कि सदा नीचे वर्गों को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया गया है।
जाति-भेद एक सामाजिक
प्रथा मात्र है और हमारे बड़े-बड़े आचार्यों ने उसे
तोड़ने के प्रयत्न किये हैं। बौद्ध धर्म से लेकर सभी संप्रदायों ने जाति-
भेद के विरुद्ध प्रचार किया है, परंतु ऐसा प्रचार जितना ही बढ़ता गया,
जाति-भेद की श्रृंखला उतनी ही दृढ़ होती गयी। जाति-भेद की उत्पत्ति भारत
की राजनीतिक संस्थाओं से हुई है। वह तो वंशपरंपरागत व्यवसायों का समवाय
(tade guild) मात्र है।
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