ई-पुस्तकें >> मेरे गीत समर्पित उसको मेरे गीत समर्पित उसकोकमलेश द्विवेदी
|
7 पाठकों को प्रिय 386 पाठक हैं |
कानपुर का गीत विधा से चोली-दामन का रिश्ता है। यहाँ का कवि चाहे किसी रस में लिखे
38. जिसके मन से मन मिल जाता
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।
दूर भले हो लेकिन अक्सर ख़्वाबों में आने लगता है।।
मोबाइल बजते ही लगता-
उसने हमको फोन मिलाया।
बजे डोरबेल तो लगता है-
दरवाज़े पर वो ही आया।
इंतज़ार के कितने नग़में अपना मन गाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
उसके घर की राहें लगतीं
कितनी परिचित, देखी-भाली।
सर्द न लगते सर्दी के दिन
तपे न दुपहर गर्मी वाली।
हमसे ज़्यादा उससे मिलने मन आने-जाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
धीरे-धीरे हमको लगने
लगता है वो इतना प्यारा।
उसके बिना एक पल भी फिर
हमसे जाता नहीं गुज़ारा।
उसकी यादों वाला बादल मन पर यों छाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
दूर भले हो लेकिन अक्सर ख़्वाबों में आने लगता है।।
मोबाइल बजते ही लगता-
उसने हमको फोन मिलाया।
बजे डोरबेल तो लगता है-
दरवाज़े पर वो ही आया।
इंतज़ार के कितने नग़में अपना मन गाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
उसके घर की राहें लगतीं
कितनी परिचित, देखी-भाली।
सर्द न लगते सर्दी के दिन
तपे न दुपहर गर्मी वाली।
हमसे ज़्यादा उससे मिलने मन आने-जाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
धीरे-धीरे हमको लगने
लगता है वो इतना प्यारा।
उसके बिना एक पल भी फिर
हमसे जाता नहीं गुज़ारा।
उसकी यादों वाला बादल मन पर यों छाने लगता है।
जिसके मन से मन मिल जाता वो मन को भाने लगता है।।
¤ ¤
|
लोगों की राय
No reviews for this book