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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


भौतिक भूमिका पर उसे क्रियान्वित करते हुये मैंने क्या खोज की? पहले, हमें ऐसे केन्द्रों की जरूरत है, जहाँ संन्यासियों को ऐसी शिक्षा की रीतियों से अवगत कराने की व्यवस्था हो सके। उदाहरणार्थ, मैं अपने एक मनुष्य को कैमरा लेकर बाहर भेज देता हूँ – पर इसके पहले उसके बारे में सिखा देना भी तो आवश्यक है। तुम देखोगे कि भारत का हर आदमी बिलकुल निरक्षर है, इसलिए शिक्षा देने के लिए विशाल केन्द्रों की जरूरत है। और इन सब का तात्पर्य क्या हुआ? – धन ! आदर्श की भूमिका पर से तुम दैनिक कार्यप्रणाली पर उतर आते हो। मैंने तुम्हारे देश में चार वर्ष श्रम किया और इंग्लैण्ड में दो वर्ष और मैं कृतज्ञ हूँ कि कुछ मित्रों ने सहारा देकर मुझे बचा लिया। आज की मण्डली में उनमें से एक उपस्थित है। कुछ अमेरिकी और अंग्रेजी मित्र मेरे साथ भारत भी गये और हमारा कार्य बड़े ही प्रारंभिक रूप में आरम्भ हुआ। कुछ अंग्रेज आये और सम्प्रदाय में सम्मिलित हुये। एक बेचारे ने तो बड़ा परिश्रम किया और भारत में उसका देहान्त हो गया। वहाँ अभी एक अंग्रेज सज्जन और देवी हैं, जिन्होंने अवकाश ग्रहण किया है। उनके पास कुछ साधन हैं। उन्होंने हिमालय में एक केन्द्र का सूत्रपात किया है और वे बालकों को शिक्षा देते हैं। मैंने उनके जिम्मे अपना एक पत्र – प्रबुद्ध भारत – दे दिया है, जिसकी एक प्रति मेज पर रखी हुई है। वहाँ पर वे लोग जनता को शिक्षा देते तथा उनके बीच कार्य करते हैं। मेरा एक केन्द्र कलकत्ते में है। स्वभावतः राजधानी से ही सारे आन्दोलन प्रारम्भ होते हैं, क्योंकि राजधानी ही तो राष्ट्र का हृदय है। सारा रक्त पहले हृदय में ही आता है और वहाँ से सब जगह वितरित होता है। अतः सारा धन, सारी विचारधाराएँ, सारी शिक्षा, सारी आध्यात्मिकता पहले राजधानी में ही पहुँचेगी और फिर वहाँ से सर्वत्र प्रसारित होगी।

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