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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


मैं इस पर गर्व नहीं कर रहा हूँ। पर देखो, मैं कह रहा था उन बालकों की कहानी। आज भारत में ऐसा गाँव नहीं, ऐसा पुरुष नहीं, ऐसी नारी नहीं, जिसे उनके कार्य का पता न हो, जिसका आशीर्वाद उन पर न बरसता हो। देश में ऐसा अकाल नहीं, जिसकी दाढ़ में घुसकर ये बालक रक्षा का काम न करें, अधिक से अधिक लोगों को न बचाएँ। और वही लोगों के हृदय को बेधता है। दुनियाँ उसे जान जाती है। इसीलिए जब कभी सम्भव हो, सहायता करो, पर अपने उद्देश्य का ध्यान रखो। अगर वह स्वार्थ है, तो न औरों को उससे लाभ होगा, न तुमको ही। यदि वह स्वार्थशून्य है, तो जिसको दी जा रही है, उसके लिये कल्याणप्रद होगी, और तुम्हारे ऊपर भी अमोघ आशीर्वादो की वर्षा करेगी। यह बात उतनी ही निश्चित है, जितना कि तुम्हारा जीवित होना। प्रभु को धोखा नहीं दिया जा सकता, कर्म के नियम को धोखे में नहीं डाला जा सकता।

अतः मेरी योजना है, भारत के इस जनसमूह तक पहुँचने की। मान लो, इन तमाम गरीबों के लिए तुमने पाठशालाएँ खोल भी दीं, तो भी उनको शिक्षित करना सम्भव न होगा। कैसे होगा? चार बरस का बालक तुम्हारी पाठशाला में जाने की अपेक्षा अपने हल-बखर की ओर जाना अधिक पसन्द करेगा। वह तुम्हारी पाठशाला न जा सकेगा। यह असम्भव है। आत्मरक्षा निसर्ग की पहली जन्मजात प्रवृत्ति है। पर यदि पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं जाता, तो मुहम्मद पहाड़ के पास पहुँच सकता है। मैं कहता हूँ कि शिक्षा स्वयं दरवाजे दरवाजे क्यों न जाए? यदि खेतिहर का लड़का शिक्षा तक नहीं पहुँच पाता, तो उससे हल के पास, या कारखाने में अथवा जहाँ भी हो, वहीं क्यों न भेंट की जाए? जाओ उसी के साथ – उसकी परछाईं के समान। ये जो हजारों लाखों की संख्या में संन्यासी हैं, जो जनता को आध्यात्मिक भूमिका पर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, वे क्यों न बौद्धिक भूमिका पर भी शिक्षा प्रदान करे? क्यों न वे जनता से कुछ इतिहास तथा अन्यान्य विषय की बातें करें? हमारे कान ही हमारे सबसे प्रभावशाली शिक्षक हैं। हमारे जीवन के सर्वोत्तम सिद्धान्त वे ही हैं, जो हमने कानों से अपनी माताओं से सुने थे। पुस्तकें तो बाद में आयीं। पुस्तकीय ज्ञान की भला क्या बिसात? कानों के द्वारा ही हमें सर्जनात्मक ज्ञान की उपलब्धि होती है। फिर, ज्यों ज्यों उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगेगी, वे तुम्हारी पुस्तकों के पास भी आने लगेंगे। पर पहले उसी तरह चलने दो – यह मेरा विचार है।

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