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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


तो, वे एक ऐसी देवी थीं, जिन्हें उनकी विचारधारा से कुछ सहानुभूति थी। लेकिन उनके पास शक्ति ही क्या थी। वे तो हम लोगों से भी निर्धन थी। पर चिन्ता नहीं – हम लोग तो धारा में कूद पड़े थे। मेरा विश्वास था कि इन विचारों से भारत अधिक ज्ञानोद्भासित होगा तथा भारत के सिवा और भी अनेक देशों और जातियों का उससे कल्याण हो सकेगा। तभी यह अनुभव हुआ कि इन विचारों का नाश होने देने के बदले तो कहीं यह श्रेयस्कर है कि कुछ मुट्ठी भर लोग स्वयं अपने को मिटाते रहें। क्या बिगड़ जाएगा यदि एक माँ न रही, यदि दो भाई मर गये तो? यह तो बलिदान है, यह तो करना ही होगा। बिना बलिदान के कोई भी महत् कार्य सिद्ध नहीं होता। कलेजे को बाहर निकालना होगा और पूजा की वेदी पर उसे लहूलुहान चढ़ाना होगा। तभी कुछ महान की उपलब्धि होती है। और भी कोई दूसरा मार्ग हो क्या? अभी तक तो किसी को मिला नहीं। मैं तुम लोगों से यही प्रश्न करता हूँ। कितना मूल्य चुकाना पड़ा है किसी सफल कार्य का? कैसी वेदना – कैसी पीड़ा ! प्रत्येक सफल क्रिया के पीछे कैसी भयानक यातना की कहानी है। हर जीवन में ही, तुम तो उसे जानते हो – तुममें से प्रत्येक व्यक्ति।

और बस इसी तरह हम लोग, हम बालकों का समूह चलता गया – बढ़ता गया। हमारे निकट के लोगों ने चारों ओर से हमें जो दिया, वह थी गाली और ठोकर। द्वार द्वार पर हमें भोजन भोजन की भिक्षा मांगनी पड़ी, कहीं हमें दुत्कार मिली तो कहीं घुड़की। किस्सा यह कि सब अनाप शनाप ही हमें दिया गया। यहाँ एक टुकड़ा मिला, तो वहाँ दूसरा। हमें एक घर भी मिल गया – टूटा-फूटा, खंडहर, जिसमें रहते थे फुफकारते काले नाग। पर हमें उसे लेना ही पड़ा – सबसे सस्ता जो था न। हम उसमें गये और जाकर वहाँ रहे।

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