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मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587
आईएसबीएन :9781613013083

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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?


तब फिर यह नित्यता है कहाँ?

हमारे जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली एक और अद्भुत वस्तु है - जिसके बिना ''कौन जी सकेगा और कौन क्षण भर के लिए भी जीवन का सुख भोग सकेगा?'' - और वह है 'स्वाधीनता की भावना'। यही भावना हमें पग पग पर प्रेरित करती है, हमारे कार्यों को सम्भव बनाती है और हमारा एक दूसरे से परस्पर-सम्बन्ध नियमित करती है - इतना ही नहीं, मानवी जीवनरूपी वल का ताना और बाना यही है। तर्क-ज्ञान उसे अपने प्रदेश से अंगुल-अंगुल हटाने का प्रयत्न करता है, उसके प्रान्त का एक-एक नाका छीनता जाता है और प्रत्येक पद को कार्य-कारण की लोहनिर्मित श्रृंखला से दृढ़ता के साथ लोह-बन्धन मं' कस दिया जाता है। पर वह तो हमारे इन प्रयत्नों को देखकर हँसती है। और आश्चर्य तो यह है कि कार्य-कारण के जिस बृहत्पुंज के भीतर दबाकर उसका हम गला घोटना चाहते थे, उसी के ऊपर वह अपने को प्रतिष्ठित किये हुए है! इसके विपरीत हो भी कैसे सकता है? असीम वस्तु के उच्चतर सामान्यीकरण (generalisation) द्वारा ही सदैव ससीम वस्तु को समझा जा सकता है। बद्ध को मुक्त के द्वारा ही, सकारण को अकारण द्वारा ही समझा सकते हैं। परन्तु यहाँ भी पुन: वही कठिनाई है। मुक्त कौन है? शरीर, या मन भी, क्या स्वाधीन है? यह तो स्पष्ट है कि वे भी नियम से उतने ही बद्ध हैं, जितने कि संसार के और सब पदार्थ। अब तो समस्या इस दुविधा का रूप धारण कर लेती है : या तो सारी सृष्टि केवल सदा परिवर्तनशील वस्तुओं का ही सामुदायिक रूप है - उसके सिवाय और कुछ नहीं है - और वह कार्यकारण के नियम से ऐसी जकड़ी हुई है कि छूट नहीं सकती, उसमें से किसी अणुमात्र को भी स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त नहीं है, तथापि वह नित्यता और स्वतन्त्रता का एक अमिट भ्रम आश्चर्यजनक रूप में उत्पन्न कर रही है - अथवा हममें और सृष्टि में कोई ऐसी वस्तु है जो नित्य और स्वतन्त्र है, जिससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के मन का यह मौलिक प्राकृतिक विश्वास भ्रम नहीं है। यह विज्ञान का काम है कि उच्चतर सामान्यीकरण द्वारा सभी घटनाओं को समझाये। अत: जिस बात की सत्यता को समझाना है उसी के किसी बात का खण्डन करके शेष अंश को उपयुक्त बताकर समझाने की युक्ति वैज्ञानिक कदापि नहीं हो सकती, चाहे वह और कुछ भले ही क्यों न हो।

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