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मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587
आईएसबीएन :9781613013083

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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?


''प्रत्येक नवजात प्राणी नये जीवन में ताजा और प्रफुल्लित होकर आता है और उसका मुक्त देन के रूप में उपभोग करता है, परन्तु मुक्त दान के रूप मे कुछ भी नहीं दिया जाता और कुछ भी नहीं दिया जा सकता। इस ताजे जीवन का दाम बुढ़ापे और उस जीर्ण जीवन की मृत्यु द्वारा दिया जाता है, जिस जीवन का नाश तो हो गया, परन्तु इसके भीतर वह अविनाशी बीज था, जिसमें से नया जीवन अंकुरित हुआ है। वे दोनों जीवन एक ही हैं।''

वह महान् अंग्रेज तत्ववेत्ता ह्यूम, शून्यवादी होते हुए भी अमरत्व पर अपने सन्देहवादी निबन्ध में कहता है-''आत्मा की देहारन्तप्राप्ति (Metempsyechosis) ही इस प्रकार का मत है जिस पर दर्शन-शास्त्र ध्यान दे सकता है।'' तत्त्ववेत्ता लेसिंग एक कवि की गम्भीर अन्तर्दृष्टि के साथ पूछता है, ''वह मत या कल्पना क्या इतनी हँसी के लायक इसीलिए है कि वह सब से पुरानी है? - इसीलिए कि मानवबुद्धि - विभिन्न पन्थों के मिथ्यावादों के द्वारा नष्ट या दुर्बल होने के पूर्व - एकदम उस कल्पना पर उतर पड़ी?... जिस प्रकार मैं नया ज्ञान, नया अनुभव कई बार प्राप्त कर सकता हूँ, उसी प्रकार अनेक बार मैं क्यों न लौट आऊँ? क्या मैं एक ही बार में इतना ले आया हूँ कि दुबारा वापस लौटने का कष्ट व्यर्थ जायगा?''

आत्मा का अस्तित्व पूर्व से ही रहता है और वह अनेक जन्म धारण करती है, इस सिद्धान्त के पक्ष और विपक्ष में कई दलीलें दी गयी हैं और सभी समय के कई अत्यन्त विचारवान पुरुष उस सिद्धान्त का पक्ष लेकर विरोधी के वाद का खण्डन करते आये हैं, और जहाँ तक हम समझ सकते हैं यदि कोई व्यक्तिमान आत्मा है तो उसका अस्तित्व पहिले से होना आवश्यक दिखता है।

यदि आत्मा का स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं है, वरन् वह स्कन्धों (विचारों) का संयोग है, जैसा कि बौद्ध सम्प्रदाय के माध्यमिकों का कहना है, तो भी उन्हें अपने मत को समझाने के लिए पूर्व अस्तित्व को स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। अनन्त अस्तित्व के किसी काल में आरम्भ होने की असम्भावना सिद्ध करनेवाली दलील का कोई खण्डन नहीं हो सकता, यद्यपि इस दलील को काटने के प्रयत्न यह कहकर किये गये हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और वह कुछ भी कार्य - चाहे वह तर्क के असंगत ही क्यों न हो कर सकता है। हमें यह देखकर खेद होता है कि इस प्रकार का भ्रमपूर्ण विवाद कई अत्यन्त विचारवान पुरुष किया करते हैं।

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