ई-पुस्तकें >> मरणोत्तर जीवन मरणोत्तर जीवनस्वामी विवेकानन्द
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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?
संक्षेप में यह कह सकते हैं कि जिन जातियों ने अपनी प्रकृति के विश्लेषण की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे तो अपने सर्वस्वरूपी इस भौतिक शरीर के परे नहीं पहुँचे और जब कभी उन्हें उसके परे जाने के लिए उच्चतर आलोक द्वारा प्रेरणा हुई, तब भी वे केवल इसी सिद्धान्त पर पहुँचे कि किसी भी प्रकार, कभी सुदूर भविष्य में यह शरीर ही अविनाशी बन जायगा।
इसके विपरीत उस जाति या राष्ट्र के लोगों ने - इण्डो-आर्यन लोगों ने अपनी अधिकांश उत्तम शक्तियाँ इसी खोज में लगा दीं कि इस बुद्धि-शक्तियुक्त मनुष्य का यथार्थ स्वरूप क्या है? और परिणाम मंज उन्हें पता लगा कि इस शरीर के परे, और उसके पूर्वज जिस तेजस्वी शरीर की आकांक्षा करते रहे उसके भी परे, 'यथार्थ मानव, वह सत्य तत्त्व, वह व्यक्ति है, जो इस शरीररूपी आवरण या वस्त्र को धारण कर लेता है और पुन: उसके जीर्ण हो जाने पर उसे अलग फेंक देता है। क्या यह तत्त्व सृष्ट किया गया? यदि 'सृजन का अर्थ यह है कि 'कुछ नहीं, से कोई वस्तु बाहर आयी तब तो उसका उत्तर निश्चयात्मक ''नहीं' है।
यह आत्मा जन्मरहित और मरणरहित है, यह आत्मा किसी प्रकार के सम्मिश्रण या संयोग से बनी हुई नहीं है, वरन् स्वतन्त्र व्यक्तिमत्ता है और इसी कारण न तो वह उत्पन्न की जा सकती और न उसका नाश ही किया जा सकता है। वह तो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में से यात्रा कर रही है।
स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि वह इतने समय तक कहाँ थी?
हिन्दू तत्त्ववेत्ता कहते हैं - ''वह भौतिक दृष्टि से भिन्न भिन्न शरीरों में प्रवेश कर रही थी, या, यथार्थ में तात्विक दृष्टि से देखने पर भिन्न-भिन्न मानसिक भूमिकाओं में से जा रही थी।''
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