ई-पुस्तकें >> मन की शक्तियाँ मन की शक्तियाँस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं
शरीर हमारा शत्रु है और मित्र भी। तुममें से कौन दु:ख का दृश्य सहन कर सकता है? और यदि केवल किसी चित्रकारी में तुम दु:ख का दृश्य देखो, तो तुममें से कौन उसे सहन नहीं कर सकता? इसका कारण क्या है, जानते हो? हम चित्र से अपने को एकरूप नहीं करते, क्योंकि चित्र असत् है; अवास्तविक है; हम जानते हैं कि वह एक चित्रकारी मात्र है; हम उसके कृपापात्र नहीं बन सकते, वह हमें चोट नहीं पहुँचा सकती। यही नहीं, यदि परदे पर एक भयानक दु:ख चित्रित किया गया हो, तो शायद हम उसका मजा भी ले सकते हैं। हम चित्रकार की कला की बड़ाई करते हैं, हम उसकी असाधारण प्रतिभा पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं, यह जानकर भी कि चित्रित दृश्य भयंकरता की कठोरतम अभिव्यक्ति है। इसका रहस्य क्या है, जानते हो? अनासक्ति ही इसका रहस्य है। अतएव केवल साक्षी बनकर रहो।
जब तक ‘मै साक्षी हूँ’ इस भाव तक तुम नहीं पहुँचते, तब तक प्राणायाम अथना योग की भौतिक क्रियाएँ इत्यादि, किसी काम की नहीं। यदि खूनी हाथ तुमहारी गर्दन पकड़ ले तो कहो, “मैं साक्षी हूँ। मैं साक्षी हूँ।” कहो, “मैं आत्मा हूँ। कोई भी बाहरी वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती।”
यदि मन में बुरे विचारे उठें तो बार-बार यही दुहराओ, यह कह-कहकर उनके सिर पर हथौड़े की चोट करो कि “मैं आत्मा हूँ। मैं साक्षी हूँ। मैं नित्य शुभ और कल्याणस्वरूप हूँ। कोई कारण नहीं है जो मैं भुगतूँ, मेरे सब कर्मों का अन्त हो चुका है, मै साक्षीस्वरुप हूँ। मैं अपनी चित्रशाला में हूँ यह जगत् मेरा अजायबघर है, मैं इन क्रमागत चित्रकारियों को केवल देखता जा रहा हूँ। वे सभी चित्र सुन्दर हैं- भले हों या बुरे। मैं अद्भुत कौशल्य देख रहा हूँ; किन्तु यह समस्त एक है। उस महान् चित्रकार परमात्मा की अनन्त अर्चियाँ।”
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