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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


जीवन-गठन की साधनाएँ

यदि जगत् की गति क्रम-अवनति की ओर हो, यदि उसका पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन हो, तो वह हमारी पतनावस्था होती है; और यदि उसकी गति क्रम-विकास की ओर हो तो वह हमारा उत्थान-काल होता है। अत: हमें पूर्वावस्था की ओर गति को नहीं जाने देना चाहिए। सर्वप्रथम तो हमारा शरीर ही हमारे अध्ययन का विषय बनना चाहिए। पर कठिनाई तो यह है कि हम पड़ोसियों को ही सीख देने में अत्यधिक व्यस्त रहा करते हैं।

हमें अपने शरीर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। फुफ्फुस, यकृत आदि की गति क्रम-अवनति की ओर है-ये स्वत: विकासोन्मुख नहीं है; इन्हें ज्ञान के क्षेत्र में ले आओ, इन पर नियन्त्रण रखो, ताकि इनका परिचालन तुम्हारी इच्छानुसार हो सके। एक समय था, जब हमारा यकृत पर नियन्त्रण था;हम अपना सारा चर्म उसी प्रकार हिला सकते थे, जैसे एक गाय। मैंने अनेक व्यक्तियों को कठोर अभ्यास द्वारा इस नियन्त्रण को पुन: प्राप्त करते देखा है। एक बार छाप लगी कि मिटती नहीं। अज्ञान के अन्धकार में छिपी हुई उपर्युक्त प्रकार की क्रियाओं को ज्ञान के प्रकाश में ले जाओ। यही हमारी साधना का पहला अंग है, और हमारे सामाजिक कल्याण के लिए इसकी नितान्त आवश्यकता है। दूसरी ओर, केवल चेतन मन का ही सर्वदा अध्ययन करते रहने की आवश्यकता नहीं।

इसके बाद है साधना का दूसरा अंग जिसकी हमारे तथाकथित सामाजिक जीवन में उतनी आवश्यकता नहीं और जो हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। इसका प्रत्यक्ष कार्य है आत्मा को मुक्त कर देना, अन्धकार में प्रकाश लाना, मलिनता को हटाना तथा  साधन को इस योग्य बना देना कि वह अन्धकार को चीरता हुआ आगे बढ़ निकले। यह ज्ञान से परे की अवस्था – यह आत्मबोध ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। जब उस अवस्था की उपलब्घि हो जाती है, तब यही मानव देव-मानव बन जाता है, मुक्त हो जाता है। और उस मन के सम्मुख जिसे सब विषयों से परे जाने का इस प्रकार अभ्यास हो गया है, यह जगत् क्रमश: अपने रहस्य खोलता जाता है; प्रकृति की पुस्तक के पन्ने एक-एक करके पढ़े जाते हैं, जब तक कि इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; और तब हम जन्म और मृत्यु की घाटी से उस ‘एक’ की ओर प्रयाण करते हैं यहाँ जन्म और मृत्यु - किसी का अस्तित्व नहीं है, तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं।

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