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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''नहीं मालकिन। ऐसा सम्भव नहीं... मेरा मतलब है... '' वह कहते-कहते रुक गया। उसकी समझ में न आ रहा था कि तारामती की प्रार्थना क्योंकर अस्बीकार करे। वास्तविकता यह थी कि जब से प्रताप ने मंगलू द्वारा उसकी बेटी का हाथ मांगा था, वह उस की छाया से भी डरने लगा था। अपनी बेटी को किसी मूल्य पर भी वह इस घर की नौकरानी बनाने को सहमत न था। कुछ देर असमंजस में रहकर वह नम्रता से बोला-

''मालकिन! आपका कृपा-पात्र होना बहुत बड़ी बात है... चार पैसे घर आते किसे बुरे लगते हैं, पर कुछ ऐसी विवशता है कि… क्षमा चाहता हूँ मालकिन। यह बात है कि गंगा के ब्याह की बात हो चुकी है। कुलीन खानदान का लड़का है, इज्जत का ख्याल है। यदि वे जान गये कि गंगा नौकरी करती है तो जाने…''

''बस-बस, मैं समझ गई… ऐसी स्थिति में उसका कहीं नौकरी करना उचित नहीं...'' तारामती ने बंसी की बात बीच ही में काट कर उसके विचार से सहमति प्रकट की।

बंसी जब गाँव की ओर लौटा तो अँधेरा बढ़ चुका था। नीचे घाटी में टिमटिमाते हुए चिराग ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो आकाश में अपनी तारों-भरी ओढ़नी धरती पर बिछा दी हो। बंसी के मन में आशा के तारे चमक उठे थे। रूपा की मां ने मोहन और गंगा के नाते की आस दिला कर तो उसके अंधेरे जीवन को प्रकाशमान कर दिया था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे अचानक किसी ने उसके लड़खड़ाते हुए जीवन को सहारा दे दिया हो। वह सोचने लगा, कितना भारी बोझ उस पर से उतर जाएगा जिस दिन गंगा मेहंदी लगाकर पालकी में बैठेगी।

अचानक चलते-चलते उसके पांव रुक गये। इस समय गोदाम में उजाला देखकर वह उलझन में पड़ गया। क्या वह शीघ्रता में बत्ती बुझाना भूल गया था? इस समय यहां कौन हो सकता है जब वह स्वयं सब किवाड़ बन्द करके तालियां मालकिन को दे आया है? मन का संशय दूर करने के लिए वह गोदाम की ओर गया।

गोदाम के अहाते में प्रवेश करते ही वह ठिठक गया और कटे पत्थरों की ओट में छिपकर देखने लगा। स्टोर का किवाड़ खुला और झट से एक स्त्री बाहर निकलकर अपनी साड़ी को शरीर पर ठीक करने लगी। फिर उसने अपनी बिखरी हुए चोली को वक्ष पर जमाया और पीठ पीछे हाथ ले जाकर खुली डोरी को बांधने लगी। कमरे से आते धीमे उजाले में बंसी ने पहचाना। यह कम्मो थी, सुगठित शरीर की युवा मजदूरन। उसके भरे काले शरीर पर परिश्रम के पवित्र मोती न थे बल्कि पाप की विष-भरी बूंदें थीं। बंसी यह दृश्य देखकर सिहर उठा। उसका मन चाहा कि वह आगे बढ़कर वहीं उसका गला दबा दे, किन्तु कुछ सोचकर वह सांस बांधे वहीं रुक गया।

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