ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''काम, काम...हर समय काम...कभी तो आराम कर लिया करो...आधा शरीर रह गया है...।''
''जब आराम भाग्य में ही नहीं लिखा...।''
''कभी दो-चार दिन की छुट्टी ले लो ना उस अपने लाट साहब से।'' ''छुट्टी? दो-चार दिन की छुट्टी मांगी तो समझ लो सदा की छुट्टी मिल जायेगी। पैसा देता है तो काम लेगा ही। कई दिन से दीनापुर जाने की सोच रहा था, एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिल सकी।''
''दीनापुर?'' रूपा की माँ ने उत्सुकता से दोहराया।
''हां...एक लड़का देखना था... अच्छा लगा तो गंगा की लगन पक्की कर आऊंगा... यह बोझ सिर से उतर जाये तो...'',
''कौन लड़का है?'' रूपा की मां ने बंसी की बात बीच में ही काटते हुए पूछा।
''अपने कालू महाराज का बेटा...आठ जमात पास है...'''
''ना भाई ना...हम ऐसे शराबी-जुआरी के घर अपनी चांद-सी बिटिया न देंगे...।''
''बाप कुछ भी हो, बेटा तो सयाना है...सुना है, काशी में कोई कारोबार खोल रखा है...और दान-दहेज के बिल्कुल खिलाफ है।''
''हां, हरिश्चन्द्र का सपूत जो ठहरा। बाप कौड़ी-कौड़ी का ब्याज लेता है, बेटा क्या कम होगा... मुर्दे का कफन तो छोड़ता नहीं दहेज छोड़ देगा। ...हूं....'' रूपा की मां तुनक कर बोली।
''और वर कोई आकाश से तो उतरेगा नहीं?'' बंसी ने कुछ झुंझलाकर कहा, फिर नम्र होते हुए बोला, ''और करूँ भी क्या? अधिक छान-बीन करने लगूं खानदान की तो दहेज के लिए पैसा कहाँ से लाऊं... बेटी के भाग्य में जो भी लिखा है वह तो होगा ही...संयोग की बात है।''
''नहीं भैया! बुढ़ापे, और गरीबी ने तुम्हारी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है... बेटी लक्ष्मी का रूप होती है। उसकी पूजा होती है, उसे ठुकराया नहीं जाता... कौन जाने यह देवी ही तुम्हारे घर का प्रकाश हो...'' रूपा की मां ने बंसी को समझाने का प्रयत्न किया।
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