ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
आधी रात सुनते ही बंसी चुप हो गया और फिर आंखों पर पानी के छींटे मारते हुए बोला-
''नहीं, तब गंगा नहीं जायेगी?''
बंसी का अधिकारपूर्ण आदेश सुनकर दोनों झेंप गईं और एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर देखने लगीं। जब बंसी हाथ-मुंह धो-पोंछ चुका तो रूपा उसके निकट आकर बोली-
''हम क्या कर सकती हैं काका। कृष्ण-जन्म ही आधी रात को होगा...''
''तो मंदिर की गहमा-गहमी देखकर लौट आओ...''
''पर... बाल-गोपालों का क्या होगा? वे रूठ जायेंगे।''
''और यहां जो बाल-गोपाल रोयेंगे तो? शरत् और मंजू का खाना कौन बनाएगा? मुझे भी तो भूख लग रही है।''
''तो क्या आज आपका व्रत नहीं है?''
''नहीं, रूपा! व्रत तो बड़े लोग रखते हैं? जिनके यहां ढेरों खाने को होता है। हम गरीबों को तो जब मिले खाना पड़ता है। जाने फिर कब मिले...''
''किन्तु गंगा का तो सवेरे से ही उपवास है काका! जब तक भगवान् का जन्म न हो वह पानी तक न छुएगी।''
''अरे, तो यह बात पहले ही कह दी होती। अच्छा जा...हमारा क्या, हम आज ठेकेदार की मिठाइयों से ही पेट भर लेंगे।''
बंसी की सहमति पर दोनों की आंखों में आशा के दीप जग उठे और वे दोनों मिल-जुलकर शीघ्र ही घर का काम निबटाने में जुट गईं। जब दोनों को एकान्त मिला तो रूपा उसको चुटकी लेते बोली, एक मजे की बात कहूँ...
''क्या?''
''इस बार राधा तू बनेगी।''
''वह तो सदा ही बनती हूँ, इसमें नया क्या है?''
''नई बात यह है कि इस बार कृष्ण मैं न बनूंगी?'
''क्यूं? ''
''सुना है अब हमारी राधा किसी और की मुरली पर मोहित हो रही है..?''
''किसकी?''
''मोहन भैया की...''
''चल हट...शैतान कहीं की...'' गंगा बिगड़ गई। रूपा उसके मुख के बदलते भाव देखकर खिलखिला उठी।
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