ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
|
2 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
पाँच
जन्माष्टमी का दिन था। बंसी काम से सीधे ही घर लौट आया था। दिन के उजाले में घर आना उसे बड़ा विचित्र लग रहा था। इससे पूर्व उसे किसी त्यौहार पर छुट्टी न मिली थी। शरत् और मंजू मारे प्रसन्नता से गली में ही उससे लिपट गये।
उसने आंगन में पांव रखे ही थे कि सामने मुंडेर पर रखी फल और मिठाई से भरी टोकरी देख कर ठिठक गया। उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह टोकरी कहां से आई। इतने में गंगा बाहर आई और बोली-
''ठेकेदार साहब ने भिजवाई है बापू! जन्माष्टमी के त्यौहार पर...''
''किन्तु आज से पहले तो उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया!''
''शायद इस वर्ष उन्हें ठेके में अधिक लाभ हुआ होगा'' गंगा ने भोलेपन से उत्तर दिया।
बंसी की समझ में कुछ न आया। उसने उचटती दृष्टि से उस टोकरी को एक बार देखा और गंगा को अपना कोट थमा कर किसी गहरे सोच में डूब गया। उसकी बुद्धि में यह बात न बैठ रही थी कि पत्थर हृदय प्रताप कैसे एकाएक मोम बन गया। उसका उसके घर आना...सौ रुपये की पेशगी... वेतन बढौती के वचन और त्यौहार पर छुट्टी, यह फल और मिठाई...सम्भव है कि इस कृपा में मालकिन का भी हाथ हो... जब से गंगा उसे मिल आई है, तब से कई बार यह स्वयं उसे बच्चों को लाने के लिए कह चुकी है। वह सोच में पड़ा था कि एकाएक गंगा के स्वर ने उसे चौंका दिया। वह कह रही थी-
''हां, बापू! बड़ी मालकिन का संदेशा भी आया है...''
''क्या?''
''मुझे कल घर बुलवा भेजा है।''
''ओह...''
''चली जाऊँ क्या.. बापू?''
''अब तो जाना ही होगा बेटी।'' बंसी ने थके हुए स्वर में कहा और मुंह-हाथ धोने को बेटी से पानी मांगा।
बंसी जब साबुन मलकर अपने अंगों से महीनों का मैल उतार रहा था, तभी गंगा ने धीमें से पूछा- ''बापू...!''
''हूं..... ''
''रूपा आई है, और कहती है...''
''क्या कहती है?''
''कहती है कि मन्दिर चलूं...''
''तो चली जाना। आगे क्या मुझ से पूछ कर जाती हो?''
''पर काका, आधी रात को लौटना होगा,'' रूपा ने झट कहा।
|