ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
उसे उस अशुभ रात की हर बात याद आ रही थी। वह अपना भय दूर करने के लिए द्वारकादास के पास आई थी, आसरा खोजने के लिए। उसके शरीर से वह यों चिपट गई थी जैसे वृक्ष की टहनी से चिमगादड़ चिपक जाए। द्वारकादास ने पहली बार उसके शरीर की गरिमा का अनुभव किया था…उसके नवयौवन का भास…उसके हाथों ने उसके शरीर की उभरती हुई रेखाओं को छुआ था।
रात बढ़ती गई और अपने अंधेरे में घिनावने समय को छिपाती गई। नीरू का भय दूर हो चुका था और वह ‘अंकल’ की स्नेहमयी गोद में सो गई थी।
किन्तु द्वारकादास? नीरा ने उसके यों पास आकर उसकी नींद छिन्न-भिन्न कर दी। उसके उठते हुए यौवन की गर्मी ने उसे दुविधा में डाल दिया था…उसके मनोमस्तिष्क में एक भयानक संघर्ष हो रहा था, काम और ‘कर्तव्य’ का संघर्ष। द्वारकादास की आंखों के सामने नीरा के बचपन की छवि आ गई थी…एक बाधा बनकर…नीरू, नन्हीं अनाथ नीरू रोए जा रही थी, वह निस्सहाय हो गई थी…उसके माता-पिता दोनों सदा के लिए उससे रूठ गए थे।
वह दिन द्वारकादास के जीवन का सबसे अशुभ दिन था जब उसका अतिप्रिय मित्र अर्जुन अपनी धर्मपत्नी चन्दा सहित हवाई जहाज की एक दुर्घटना में परलोक सिधारा था और उसने उसकी इकलौती बेटी नीरा को पालने का उत्तरदायित्व लिया था।
नीरू के बचपन और यौवन के आरंभ तक के ये दस वर्ष चुटकियों में बीत गये थे। वह अपने स्वर्गवासी माता-पिता को भूल चुकी थी। उसके जीवन का एकमात्र आश्रय उसके अंकल ही थे। अंकल उसके सुख का ध्यान रखते थे और वह उन्हें प्यार करती थी। इसी कारण भय को दूर करने के लिए उनके बिस्तर में आ छिपी थी। अंकल के सीने से लिपटकर सोने में उसे तनिक भी संकोच अनुभव न हुआ था…आखिर वह उसके अंकल थे—पिता समान अंकल…उसके रक्षक…पालनहाल।
नीरा के लिए यह बात साधारण थी किन्तु, इस ‘मासूम घटना’ ने द्वारकादास के मन में एक उपद्रव मचा दिया…उसके सम्बन्ध को एक नया मोड़ दिया। वह भोली-भाली बालिका जो कल तक उसके घर में एक अनचटकी-सी कली थी। अचनाक उसकी गोद में सौन्दर्य का नवखिला पुष्प बनकर आ गई थी। उसके युवा शरीर की गर्मी ने द्वारकादास की शीत धमनियों में स्पर्श से ही एक आग-सी भर दी…और फिर इस प्रतिक्षण दहकती हुई ज्वाला को बुझाने के लिए उसने अपने होंठ नीरा के होंठों से भिड़ा दिये।
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