ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
२
ताबड़-तोड़ हवा के थपेड़ों से हारकर खिड़की के दोनों पट खुल गए थे और बार-बार एक-दूसरे से टकराकर बाहर वातावरण की कठोरता का परिचय दे रहे थे, पानी की फुहार आ जाने से शीत बढ़ गई थी।
नीरा शिथिल-सी अपने पलंग पर पड़ी भावहीन दृष्टि से उस द्वार को देखे जा रही थी जिसे जाते हुए द्वारकादास यों सावधानी से बंद कर गया था मानो यह द्वार वर्षा से न खुला हो। उसने पूरे शरीर पर कम्बल खींच लिया और उसमें सिमटकर कंपकंपी दूर करने का प्रयत्न करने लगी। उसका शरीर यों टूट रहा था मानो बोझ तले दब गया हो। वह शरीर जिसमें कुछ समय पहले वह एक विद्युत-सी दौड़ती अनुभव कर रही थी, अब अंगारे के समान निर्जीव ढेर-सा रह गया था। उसके होंठ अभी तक जल रहे थे जैसे किसी ने उन पर तेजाब छिड़क दिया हो। द्वारकादास के विषैले दांत उन कोमल पंखुड़ियों पर अपने चिह्न छोड़ गए थे।
लेटे-लेटे नीरा के मस्तिष्क पर बीते हुए दिनों की परछाईयां उभरने लगीं। वह रात एक जीवित तस्वीर के समान उसकी आंखों के सामने आ गई। जब उसने पहली बार द्वारकादास की कामइच्छा पर अपनी मासूम अभिलाषाओं की बलि दी। तब वह कितनी भोली-भाली थी, जग की शूल भरी राहों से बिलकुल अनजान। उसकी आयु शायद उस समय पूरे पन्द्रह वर्ष की भी न हुई थी और वह डरी-सहमी-सी स्वयं ही उनके शयन-गृह में आ गई थी।
ऐसी ही भयानक रात थी वह। सावन-भादों गले मिलकर जश्न मना रहे थे, होली खेल रहे थे। बिजली की चमक और बादलों की गर्जन से वातावरण कांप रहा था। धीरे-धीरे पांव उठाती, अंधेरे में वह उसकी चारपाई के पास आई और कांपते हाथों से लिहाफ उठाकर गुड़िया के समान उसके सीने से जा लगी।
द्वारकादास उसके आते ही जाग गया और किसी शरीर का अपने निकट भास करके चिल्ला उठा था, ‘कौन?’
‘मैं हूं नीरू…।’ उसने कांपते स्वर में उत्तर दिया था और उसके सीने के साथ चिपक गई थी।
द्वारकादास ने स्नेह से उसके शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘क्यों…क्या हुआ?’ और उसने उत्तर दिया था—‘अकेले में डर लगता है अंकल।’
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