ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
९
दोपहर के कोई दो बजे थे। नीरू सामान बांधने में व्यस्त थी। शाम की गाड़ी से वह पारस के संग अम्बाला जा रही थी। वह आज अत्यन्त प्रसन्न थी। जीवन में उसके लिए द्वारकादास से अगल दूसरे व्यक्ति के साथ यात्रा करने का प्रथम अवसर था। इस वातावरण से वह थक गई थी और उसे यों अनुभव हो रहा था, मानो उसके पैरों से बेड़ियां उतार ली गई हों। वह जेल की चहारदीवारी से निकलना ही चाहती हो।
पारस उन चीजों को संभालकर बंद कर रहा था जो बहन के दहेज के लिए वह बाजार से खरीदकर लाया था। द्वारकादास ने इस काम के लिए उसे पांच हजार रुपये दिये थे और उसने अधिक बहुमूल्य सामान वहीं से खरीद लिया था। मां इन चीजों को देखकर इतनी प्रसन्न होगी, और फिर वह पहली बार अपनी बहू से मिलेगी, नीरा से, उसकी नीरा से जिसने उसे इतना मान दिया है, इस योग्य बनाया है कि वह इतनी शीघ्र यह शुभ कार्य कर सके, यह विचार और मां और बहन से मिलने की कल्पना से उसका दिल खिल उठा था। सामान संभालते हुए थोड़े-थोड़े समय पश्चात् वह मुस्कराकर नीरा को देख लेता जिसके मुख पर फूल की-सी खिलन हर्ष की सूचक थी।
द्वार पर अचानक थाप सुनाई दी। दोनों ने एक साथ पलटकर प्रवेश द्वार की ओर देखा। नौकर कोई संदेश लाया था। पारस ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।
‘सेठजी की तबियत अचानक खराब हो गई है। उसने भीतर आते ही कहा।
‘क्यों, क्या हुआ?’ पारस ने झट पूछा।
‘पेट में कोई पीड़ा उठी है…आपको बुला भेजा है। ’
पारस का चेहरा यह सुनते ही फीका पड़ गया। उसने नीरा को देखा जो स्वयं इस सूचना से घबरा गई थी। उसे एकाएक इस भय ने खा लिया कि कहीं यह दुर्घटना उसके अम्बाला जाने के कार्यक्रम को स्थगित न कर दे।
पारस शीघ्रता से नौकर के साथ द्वारकादास के कमरे की ओर चला गया। नीरा कुछ देर मौन खड़ी उसे देखती रही और फिर चुपचाप बक्स में कपड़े जमाने लगी। एक बार उसने सोचा कि स्वयं जाकर अंकल की कुशलता पूछे किन्तु फिर कुछ सोचकर रुक गई। उसने गैलरी से डाक्टर को उनके कमरे की ओर जाते भी देखा किन्तु उनके पास जाने को उनका मन न किया। यह सब उसे रचा-रचाया-सा नाटक लग रहा था जिसका उद्देश्य केवल उसे जाने से रोकना था—एक बहाना था, एक चाल थी उसकी उसे पारस से अलग करने की।
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