ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘तुम्हारी बात मुझे जंची है—एक बात करो।’
‘क्या?’
‘ठीक है, तुम नीरू को अपने साथ अम्बाला ले जाओ। द्वारकादास ने बुझे मन से कहा।
‘किन्तु…।’ पारस का चेहरा खिल उठा।
‘इस मोह के जाल से मुक्त होने का यह मेरा पहला प्रयास होगा। प्रथम अनुभव, इसे बचपन से एक दिन भी आंखों से ओझल नहीं किया शायद इसीलिए इसकी विदाई के विचार से भी कष्ट हो रहा है।’
‘तो मैं चली जाऊं इनके साथ, अंकल।’ नीरा जो अब तक चुप थी झट बोली।
‘हां, सोचता हूं दो-चार दिन आंखों से दूर रहोगी, तो उस पीड़ा का कुछ वास्तविक भास तो मैं कर लूंगा जो बेटी के जाने से मां-बाप को होती है।’ भर्राई हुई आवाज में उसने कहा और बोझिल मन से उठकर धीरे-धीरे अपने कमरे में चला गया।
पारस और नीरा दोनों उसे जाते हुए देखते रहे, दोनों अपने दृष्टिकोण से उसकी पीड़ा का अनुभव कर रहे थे। द्वारकादास के ओझल होते ही दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। पारस के होंठों पर मुस्कराहट खिल आई।
‘तो चल रही हो ना नीरू।’ उसने कोमलता से नीरा के कंधे को छूते हुए कहा।
‘आपकी आज्ञा सिर आंखों पर…।’ नीरा ने कुछ सोचकर उसकी मुस्कराहट का उत्तर दिया।
‘धन्यवाद! आओ…।’ पारस ने प्यार से उसकी आंखों में देखते हुए कहा। नीरा ने उसका हाथ थामा और दोनों बाहर लॉन में आ गए।
द्वारकादास ने अपने कमरे की खिड़की से झांककर इस दम्पति को देखा और दिल मसोसकर रह गया। उसकी आंखों में चिंगारी-सी भड़की और बुझ गई, उसकी दशा उस व्यक्ति के समान थी जिसकी पतंग दूसरे की पतंग से उलझकर कट गई हो और उसके हाथ में केवल गिरती हुई डोरी रह गई हो।
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