लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> कलंकिनी

कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

नीरा चुप हो गई। उसका अपना मूड बिगड़ गया था, उसने शीघ्र खाना समाप्त किया और अपने कमरे में चली आई। वर्षा की बौछार इस बीच में और तेज हो गई थी। छत और दीवारों पर पानी टकराने से भयंकर शोर हो रहा था।

नीरा ने कमरे की चटखनी भीतर से चढ़ा ली।

ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जा रही थी त्यों-त्यों वर्षा का बल भी तीव्र होता जा रहा था, नीरा तकिए को वक्ष से लगाए निद्रा की देवी को समीप लाने का प्रयत्न कर रही थी। उसके बंद पपोटे धीरे-धीरे बोझिल होते जा रहे थे। इस अधूरी-सी नींद में उसे एक अलौकिक आनन्द मिल रहा था…कानों में वर्षा का संगीत धीरे-धीरे मधुर होता जा रहा था और नयनों में कुछ मनोहर सपने जागते जा रहे थे, इनमें पारस की झलक भी थी जो प्रतिक्षण उज्जवल होती जा रही थी।

एकाएक खट्खट् की ध्वनि से उसकी आंखें खुल गईं, अंधेरे में वह वातावरण की शून्यता को निहारने लगी—खिड़की, द्वार, दीवारें…उसने अंधेरे कमरे में सर्वज्ञ दृष्टि घुमाई।

कुछ देर बाद वह खट्-खट् फिर सुनाई दी। नीरा की दृष्टि उस बीच वाले द्वार पर जा टिकी जो उसके और अंकल के शयनकक्ष को मिलाता था। वह समझ गई यह आहट किसने की थी। यह निशदिन की आधी रात की आहट उसके जीवन का नियम बन गई थी…अनचाहा नियम, उसके सपनों के जगमगाते संसार में अंधेरा सा छा गया। उसके मन में अनायास एक खिन्नता उत्पन्न हुई एक कसैलापन। शरीर जो हल्की नींद की गोद में कोमलता का भास कर रहा था एकाएक अकड़-सा गया।

‘नीरा…।’

अंकल की आवाज को सुनकर नीरा ने कम्बल को हटाया और झट ड्रेसिंग गाउन पहनकर खड़ी हुई।

‘नीरू। आज बड़ी देर कर दी।’ उसके द्वार खोलते ही द्वारकादास ने कहा। उसकी ध्वनि में एक विशेष उखड़ापन था, विलासमय बेचैनी। इत्र की महक से उसने अपने शरीर की घिनावनी दुर्गन्ध को दूर करने का विफल प्रयत्न किया था।

‘जरा आंख लग गई थी।’ नीरा ने बेदिली से उत्तर दिया।

‘तभी मैं सोच रहा था। आज मेरी नीरू ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई।’ यह कहते हुए द्वारकादास उसके पलंग की ओर बढ़ा।

नीरा वहीं खड़ी रही। असाधारणतः आज वह कुछ गहरे विचारों में डूबी हुई थी।

‘आखिर क्या सोच रही हो?’ द्वारकादास उसे रुके हुए देखकर लौटा और उसकी कमर में हाथ डालते हुए बोला।

‘कुछ नहीं।’ नीरा ने उसकी विलासता से लाल हुई आंखों में झांकते हुए कहा।

द्वारकादास ने दोनों बांहें उसकी गर्दन में डाल दीं।

नीरा ने एक झटके से उसके हाथ अलग कर दिए और चुपचाप पलंग पर चली आई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book