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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

कमरे में भीतर आते ही उसने ट्रांजिस्टर को मेज पर रख दिया और डायल घुमाकर पिश्चिमी संगीत की एक धुन पर नाचने लगी। हल्के-हल्के नाच की मधुर धुन थी। वह कुछ देर के लिए उन्माद में बेसुध-सी हो गई। नाचते हुए उसके अचानक पांव ड्रेसिंग टेबल के सामने एकाएक रुक गए। अपने ही प्रतिबिम्ब को देखकर वह कुछ लजा सी गई और फिर दर्पण के इतना समीप हो गई मानो स्वयं को आलिंगन में भरना चाहती हो…एक विशेष मनमोहिनी थी उस समय उसमें, एक विचित्र हाव-भाव जैसे हवा में दीपक की लौ लहरा जाए।

सहसा उसे दर्पण में द्वारकादास का चेहरा दिखाई दिया। वह उसमें यौवन के उन्माद को निहार रहा था। आंखों में एक हवस एक वासना लिए। उसके होंठों पर एक मुस्कान थी, वह मुस्कान जो मकड़ी के होंठों पर होती है। किसी पतंगे को थिरकते हुए देखकर।

नीरा के गालों पर तनिक-सी संकोच की लालिमा उभरी। वह कुछ सोचकर उसकी ओर बढ़ी और अपना सिर उसके वक्ष पर रख दिया। द्वारकादास उसके बालों से खेलने लगा।

खाने की मेज पर बैठते हुए नीरा ने उस युवक का वर्णन किया जो उसे घर तक पहुंचा गया था। द्वारकादास ने पैनी अंखियों से मीरा की ओर देखा और बोला—‘यह तुमने अच्छा नहीं किया नीरू।’

‘क्यों अंकल?’ नीरा ने चौंकते हुए पूछा।

‘किसी अनजान व्यक्ति के साथ…।’

‘आप, अंकल यों ही भ्रम करते हैं…युवक तो बड़ा भला दिखाई दे रहा था और फिर इतनी रात गए अकेली कैसे आती टैक्सी में?’

‘भलाई किसी के चेहरे पर नहीं लिखी होती…जो कुछ हुआ सो हुआ, भविष्य में ध्यान रखना।’ द्वारकाप्रसाद ने कुछ कठोर स्वर में कहा।

नीरा चुप हो गई और कनखियों से अंकल के चेहरे पर आते-जाते रंगों को देखने लगी। वह सोचने लगी, वास्तव में चेहरे से मन की बात जानना कठिन है…न जाने अंकल के मन में इस समय कौन से विचार उठ रहे थे, कौन-सी शंकाएं उसे घेरे हुई थीं, वह अपने रोष को दबाने का प्रयत्न कर रहा था।

‘उस युवक का नाम पारस था।’ कुछ क्षण रुककर उसने गंभीर होते हुए मौन को तोड़ा।

द्वारकादास का हाथ खाते-खाते वहीं रुक गया। नीरा के होंठों पर पारस का शब्द कुछ इस ढंग से आया था कि वह चौंक पड़ा। नीरा उसकी घबराहट का भास करके मुस्करा पड़ी। उसे यों छेड़ने में आनन्द आ रहा था।

द्वारकादास ने कोई बात न की और नीचे आंखे किए फिर खाना खाने लगा।

‘क्यों अंकल? आप यों क्रोध में भर गए जैसे पारस से आपको कोई विशेष ईर्ष्या हो।’

‘नीरा।’ वह क्रोधित स्वर में चिल्लाया और फिर कुछ रुक कर बोला, ‘कितनी बार समझाया है मुझे यह उद्दंडता अच्छी नहीं लगती। अब तुम सयानी हो चुकी हो…मैनर्स भी कोई चीज है…तुम्हें ज्ञात होना चाहिये बड़ों से कैसे बात-चीत करते हैं।’

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