ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
पारस आश्चर्य, किन्तु उत्सुकता से उसकी ओर देखे जा रहा था। वह सोच रहा था ऐसी कौन-सी अद्भुत भेंट हो सकती है जो वह प्रस्तुत करने वाला है…पदोन्नति, कोई भारी चैक…सोने की घड़ी, उसके मस्तिष्क में कई बहुमूल्य वस्तुओं की झलकियां-सी उत्पन्न हुईं। द्वारकादास ने सिगार का एक लम्बा कश लिया और नम्र स्वर में बोला—
‘मैंने आज मन में एक निर्णय किया है—पारस।’
पारस ने कोई उत्तर न दिया और विचित्र निश्चय सुनने के लिए भावनाओं को संभालने लगा।
‘क्यों न तुमको और नीरू को एक सूत्र में बांध दूं।’
‘जी?’ उसका आशय समझते हुए भी उसने आश्चर्य से पूछा।
‘मैं तुम दोनों का ब्याह कर देना चाहता हूं।’
‘यह कैसे संभव हो सकता है?’ पारस ने कुछ सोचकर कहा।
द्वारकादास इस बात पर तनिक-सा झेंप गया, किन्तु—शीघ्र ही सम्भलते हुए बोला—‘क्यों? क्या वह इस योग्य नहीं कि…।’
‘नहीं मेरा मतलब था मैं उनकी समानता कैसे कर सकता हूं—वह तो किसी रईस…।’ पारस ने झिझकते हुए कहा।
‘यह देखना मेरा काम है।’ द्वारकादास अब के दृढ़ स्वर में बोला।
‘किन्तु, यह नीराजी के जीवन का महत्वपूर्ण प्रश्न है, उनकी सहमति।’
द्वारकादास ने उसकी बात को बीच में ही टोक दिया, इस विषय में नीरू का मन टोहना मेरा काम है—फिर मेरे हर निर्णय को वह आदर से ही देखती है—उसी के भले की सोचता रहा हूं।’
पारस फिर कुछ देर सोचता रहा, उसकी बुद्धि में न आ रहा था कि क्या उत्तर दे। बड़ी गंभीर स्थिति थी और तुरन्त निर्णय की आवश्यकता में उसने क्षण भर अंतर में झांका और बोला—
‘तो…तो आपकी आज्ञा पर सिर झुकाना मेरा कर्तव्य है।’
‘किन्तु एक बात इसमें हमारी इच्छा की तुम्हें माननी होगी।’
‘क्या?’
‘मेरा सब कुछ नीरा का ही है, उसे अलग करना मेरे वश की बात न होगी।’
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