ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
५
पांच बजने पाले थे किन्तु द्वारकादास अभी तक ऑफिस में न लौटा था। पारस चपरासी को घर जाने की आज्ञा देकर स्वयं बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। एक आवश्यक बात पर उससे परामर्श लेना चाहता था। घर में दो-एक बार टेलीफोन करने का भी कोई लाभ न हुआ। न तो द्वारकादास ही का कोई पता था और न नीरा से कोई बात हुई। नौकर ने सूचना दी थी कि वह किसी कार्यवश बाहर चली गई हैं।
ऑफिस बंद करके वह घर लौटने के लिए उत्सुक था, किन्तु बिना द्वारकादास के आये यह संभव न था। वह सोच रहा था कि क्या करे, किसी के पांव की आहट पर उसने पलटकर देखा और सामने नीरा को देखकर आश्चर्य करने लगा।
‘आप…आप—यहां।’ रुकते हुए शब्दों में उसके मुंह से निकला।
‘क्या मुझे यहां नहीं आना चाहिये था?’ नीरा ने सरल भाव से मुस्कराते हुए कहा।
‘नहीं…मेरा मतलब था इस समय—यों तो आप ही का दफ्तर है।’
‘इन दिनों नहीं।’ नीरा कुर्सी पर बैठते हुए बोली—‘इसका उत्तरदायित्व दूसरे पर डाल दिया है हमने।’
‘ओह, यह महान कृपादृष्टि है, वरना इतने कम समय में इतना विश्वास?’
‘मानव क्या है, क्या कर सकता है, उसके विचार-आचार जानने के लिए एक भेंट ही काफी है। अंकल भी आपकी प्रशंसा कर रहे थे।’
‘आपका यह उपकार तो मैं जीवन भर नहीं भुला सकूंगा।’
‘इसमें उपकार कैसा, जो आपके भाग्य का है वह तो आपको मिलेगा ही।’
‘जी…किन्तु भाग्य के लिये भी साधन चाहिये, उस दिन वर्षा में न आप लिफ्ट देतीं न मैं यहां होता।’
‘चलिये छोड़िये यह नीरस विषय, इसके लिए कोई क्या करता है क्यों करता है मिस्टर पारस इसे रहने दीजिए, हां, कहिए आपका इस काम में मन लगा?’
‘मन न लगने की क्या बात है, आपने धन और नाम दोनों मेरी झोली में डाल दिये।’
‘आप कहां के रहने वाले हैं?’ नीरा ने एकाएक विषय बदला।’
‘अम्बाला का।’
‘वहां आपका मकान होगा?’
‘जी…पूर्वजों का बनाया हुआ एक मकान है, यों तो इस संसार में एक बूढ़ी मां और छोटी बहन के अतिरिक्त मेरा कोई नहीं।’
‘तो आप अभी अकेले हैं, आपका ब्याह नहीं हुआ अभी?’ नीरा ने पूछा।
पारस क्षण भर के लिए ठिठक गया और फिर बोला—‘जी नहीं।’
‘सगाई तो हो चुकी होगी?’ नीरा ने फिर पूछा।
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