ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘मिस्टर पारस चले गये क्या।’ द्वारकादास की कर्कश आवाज ने उसके विचारों का तांता तोड़ दिया। वह पार्टी में जाने के लिए नया सूट पहनकर आ गया था।
‘जी…कल आपके ऑफिस में आएगा। चलिए अब देर हो रही है।’
गाड़ी में नीरा को निरन्तर मौन बैठे देखकर द्वारकादास को बड़ा विचित्र-सा लगा। मन बहलाने के लिए उसने स्वयं बात आरंभ की—
‘अब तो प्रसन्न हो…नीरू।’
‘हूं…जी…।’ वह चौंकते हुए बोली।
‘तुम्हारे कहने पर मैंने उसे रख लिया है, इतने भारी वेतन पर।’
‘आपको दुःख तो नहीं हुआ।’ नीरा ने द्वारकादास के मन को टटोलने का प्रयत्न किया।
‘नहीं…मुझे तो हर्ष ही हुआ कि तुम्हारी पसन्द बुरी नहीं।’
‘आपको पसन्द नहीं क्या?’
‘क्यों नहीं…सभ्य युवक है…बुद्धिमान भी लगता है…हैं एक बात मुझे कुछ खटकी।’ द्वारकादास ने होंठ चबाते हुए कहा।
‘क्या?’ नीरा ने झट पूछा।
मोड़ काटते हुए गाड़ी तनिक एक ओर को झुक गई और नीरा डोलकर बिल्कुल अंकल के साथ जा लगी। द्वारकादास ने वासना भरी दृष्टि से उसे देखा और रुककर कहने लगा—‘देखने में बहुत सुन्दर है।’
‘तो…?’
‘डरता हूं उसे तुम्हारे निकट लाकर स्वयं अपने हाथों अपने प्रेम का गला तो नहीं दबा रहा।’
‘अंकल।’ नीरा ने चंचलता से उसकी ओर देखा और बोली—‘यदि आपका प्रेम इतना जीर्ण हो चुका है—आपको स्वयं पर विश्वास नहीं तो छोड़िये, यह रिस्क मत लीजिए।’
‘अपना प्रेम चाहे जीर्ण हो जाए पर मुझे अपनी नीरू के मन पर विश्वास है।’ द्वारकादास मुस्कराया।
‘सच, आपको मुझ पर विश्वास है?’
‘यदि मुझे यह विश्वास न हो तो मैं ऐसा न करूं…भगवान न करे, इसके पहले कि मुझे यह भ्रम भी हो कि मेरी नीरू मुझे धोखा दे रही है…मैं स्वयं प्राण दे दूंगा।’
गाड़ी फिर उछली। नीरा के मन को धक्का-सा लगा। यह अंकल ने क्या कह दिया, वह सोचने लगी कि दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ भी तो उसे भी अंकल की गोली का निशाना बनना पड़ेगा, वह कहां जा रहे हैं…भाग्य उसे कहां खींचकर लिए जा रहा है…यह कैसा परिस्थिति चक्र है—वह सहमी-सी मौन बैठ गई। उसने पूरे मार्ग में अंकल से कोई बात न की।
|